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Bhangaram Mata Mandir Ka Itihas: इस मंदिर में दी जाती है देवी–देवताओं को मौत की सजा; जानिए भंगाराम जात्रा की कहानी...विस्तार से

Bhangaram Mata Mandir Ka Itihas: छत्तीसगढ़ की बस्तर क्षेत्र में स्थित भंगाराम माता मंदिर (Bhangaram Mata Temple) न केवल धार्मिक आस्था का केंद्र है, बल्कि यह क्षेत्रीय न्याय और सामाजिक परंपराओं का प्रतीक भी है। यह मंदिर सुरडोंगर गांव के पास स्थित है और सदियों से स्थानीय लोगों के जीवन में गहरा प्रभाव रखता आया है। यहां की प्रमुख देवी भंगाराम माता, को क्षेत्र की संरक्षक और न्यायदाता के रूप में पूजा जाता है।

Bhangaram Mata Mandir Ka Itihas: इस मंदिर में दी जाती है देवी–देवताओं को मौत की सजा; जानिए भंगाराम जात्रा की कहानी...विस्तार से
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By Chirag Sahu

Bhangaram Mata Mandir Ka Itihas: छत्तीसगढ़ की बस्तर क्षेत्र में स्थित भंगाराम माता मंदिर (Bhangaram Mata Temple) न केवल धार्मिक आस्था का केंद्र है, बल्कि यह क्षेत्रीय न्याय और सामाजिक परंपराओं का प्रतीक भी है। यह मंदिर सुरडोंगर गांव के पास स्थित है और सदियों से स्थानीय लोगों के जीवन में गहरा प्रभाव रखता आया है। यहां की प्रमुख देवी भंगाराम माता, को क्षेत्र की संरक्षक और न्यायदाता के रूप में पूजा जाता है।

आदिवासी इलाकों में एक ऐसी संस्कृति छिपी हुई है जो न्याय की सामान्य धारणा को उलट देती है। यह इंसानों के बीच न्याय करने के बारे में नहीं है, बल्कि देवताओं को उनके दिए हुए वचनों पर खरा उतरने के लिए मजबूर करने की बात है। यहां देवी देवताओं को उनकी वादों के लिए जवाबदेह ठहराया जाता है और सजा दी जाती है। 9 परगना के 57 गांव के 5000 से भी अधिक देवी–देवताओं की सुनवाई के लिए यह अदालत लगाया जाता है।

मंदिर से जुड़े प्राचीन मान्यता

कोंडागाँव जिले के केशकल के सुरडोंगर गांव में बसा हुआ भंगाराम देवी मंदिर काफी दिलचस्प है। यह कोई साधारण मंदिर नहीं है; यहां पवित्रता और न्याय की सीमाएं आपस में घुल-मिल जाती हैं। यह परंपरा गोंड, मारिया, भतरा और हल्बा जैसे आदिवासी समूहों की जिंदगी में सदियों से रची-बसी है। हर साल भादो महीने के आखिरी हफ्ते मे समुदाय भादो जात्रा उत्सव के लिए इकट्ठा होता है। इस जात्रा में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। यह तीन दिनों का आयोजन मंदिर परिसर को एक अस्थायी अदालत में बदल देता है, जिसे स्थानीय भाषा में जन अदालत या देव अदालत कहा जाता है। यहां फोकस लोगों के बीच झगड़ों को सुलझाने पर नहीं, बल्कि देवताओं के खिलाफ शिकायतों को सुनने पर होता है, जो समृद्धि और कल्याण के रक्षक माने जाते हैं।

देवताओं पर किस प्रकार चलाया जाता है मुकदमा

इस दिव्य अदालत में कार्यवाही ठीक वैसे ही चलती है जैसे कि गांव में कोई आम सभा चलती हो जिसमें लोगों की बात सुनी जाती है। इस अदालत में ग्रामीण देवताओं के कार्यों को लेकर जैसे की फसल खराब होना, गांव में बीमारी फैलने, प्राकृतिक आपदाएं आदि समस्याओं को देवताओं की लापरवाही का नतीजा बताया जाता है। भक्तों द्वारा चढ़ाई हुए देवताओं को चढ़ने और प्रार्थनाएं यदि व्यर्थ हो जाते हैं तो उन पर मुकदमा चलाया जाता है और इस दिव्य अदालत में जज का काम करती है भंगाराम देवी जिन्हें मुख्य न्यायाधीश के रूप में पूजा जाता है। इस अदालत में गवाहों के रूप में मुर्गी, पक्षी या अन्य जानवरों का इस्तेमाल किया जाता है।

माता किसी एक व्यक्ति के शरीर में आती है और दोनों पक्षों की दलीलें सुनती हैं। शिकायतकर्ता अपनी मुश्किलों का ब्योरा देते हैं, जबकि देवता के बचाव पक्ष वाले पिछले उपकारों के आधार पर रहम की अपील कर सकते हैं। फैसला सामूहिक विचार-विमर्श से निकलता है, जो व्यक्तिगत निर्णय से ज्यादा समुदाय की एकजुटता पर जोर देता है। यह सब एक समर्पित रजिस्टर में दर्ज किया जाता है, जिसमें आरोपी देवताओं की संख्या, आरोपों की प्रकृति और परिणाम नोट किए जाते हैं, जो दिव्य जवाबदेही का सालों पुराना ऐतिहासिक रिकॉर्ड बनाते हैं।

इस प्रकार से दी जाती है अपराधी देवताओं को सजा

दोषी देवताओं पर लगाए जाने वाली सजा वाकई में काफी अनोखी है। इस अदालत में इन्हें सामान्य जेल, उम्र कैद और मृत्यु दंड की सजा दी जाती है। उम्र कैद की सजा का मतलब है कि उस देवता की सारी पूजा और रस्में बंद कर दी जाती है,जिससे उनकी आध्यात्मिक जीविका समाप्त हो जाती है। मृत्युदंड का अर्थ है कि देवता की संपूर्ण भूमिका समाप्त कर देना। अगर देवताओं को इस सजा से बचना हो तो उन्हें गांव में या तो बारिश कर फसले अच्छी करनी होती है या जो समस्याएं हैं उन्हें दूर करना होता है। जिससे उनकी सजा को कम या तो समाप्त कर दिया जाता है।

पुजारी (सिरहा) के माध्यम से देवी के आदेशों का पालन किया जाता है और देवताओं को उनके कर्तव्यों की याद दिलाई जाती है। यदि देवता अपने कृत्यों में सुधार दिखाते हैं और समाज की भलाई का वचन देते हैं, तो उन्हें पुनः मंदिर में स्थापित किया जाता है। यह प्रणाली बस्तर की सांस्कृतिक और धार्मिक समझ को स्पष्ट रूप से दर्शाती है। जात्रा की समाप्ति के बाद अंतिम पूजा और नारियल भेंट करते हुए आमंत्रित सभी देवी देवताओं की विदाई की जाती है। आदिवासियों में आस्था कि यह अनूठी परंपरा आज भी कायम है।

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