Begin typing your search above and press return to search.

Bastar Khan Devta: यहां होती है खान देवता की पूजा, क्या सच में होती है इनकी पूजा से बीमारियां ठीक! जानिए रहस्य..

Bastar Khan Devta: छत्तीसगढ़ में स्थित बस्तर क्षेत्र अपनी आदिवासी संस्कृति, जंगलों और प्राचीन परंपराओं के लिए जानी जाती है। यहां एक ऐसी जगह है जहां खान देवता की होती पूजा है.

Bastar Khan Devta: यहां होती है खान देवता की पूजा, क्या सच में होती है इनकी पूजा से बीमारियां ठीक! जानिए रहस्य..
X
By Chirag Sahu

Bastar Khan Devta: छत्तीसगढ़ में स्थित बस्तर क्षेत्र अपनी आदिवासी संस्कृति, जंगलों और प्राचीन परंपराओं के लिए जानी जाती है। यहां की चिकित्सकीय पद्धति भी काफी अनोखी है। यहां बीमारियों का इलाज तंत्र मंत्र और जड़ी बूटियो के मदद से किया जाता है। अभी के आधुनिक युग में चिकित्सा काफी डेवलप हो चुकी है परंतु बस्तर क्षेत्र में आज भी इलाजों के लिए जड़ी बूटियों और मंत्रों का सहारा लिया जाता है। आज हम बस्तर क्षेत्र से जुड़ी अनोखी चिकित्सकीय पद्धति के एक वास्तविक घटना के बारे में बताने वाले हैं जो आज भी जीवित है।

बस्तर में चिकित्सकीय सुविधाओं का इतिहास

बस्तर क्षेत्र आदिवासियों का निवास स्थान था और आज भी छत्तीसगढ़ की अधिकांश आदिवासी जनजातियां बस्तर क्षेत्र में निवास करती हैं। यहां चिकित्सकीय इलाजों के लिए औषधीय का उपयोग प्राचीन समय से किया जा रहा है। फिर जब ब्रिटिश शासन का वर्चस्व इन क्षेत्रों में लागू हुआ तो यहां के लोगों को बाहरी दवाइयों के बारे में भी पता चला। बस्तर क्षेत्र में बीमारियों के इलाज के लिए घर यात्रा जैसी दैवीय परंपराएं भी प्रचलित है।

बस्तर क्षेत्र में महामारी का संकट

ब्रिटिश काल के समय आधुनिकीकरण के वजह से यहां की संसाधनों जैसे जंगलों, पर्वतों और नदियों का शोषण होने लगा। इन सभी कारणों के वजह से यहां की प्रकृति असंतुलित हो गई और कई प्रकार की महामारी फैलने लगी। 1890 से 1920 के बीच, भारत में मलेरिया जैसी महामारी ने लाखों जानें लीं और बस्तर भी इसमें सबसे प्रभावित क्षेत्रों में से एक था। ब्रिटिश रिपोर्ट्स के अनुसार, केंद्रीय प्रांतों में मलेरिया ने जनसंख्या को 20% तक कम कर दिया। आदिवासी समुदाय इन सब चीजों से काफी बेखबर थे वे इस अपने देवता का प्रकोप मानते थे और इसके इलाज के लिए बैगा और गुनिया जनजाति के लोगों की मदद ली जाती थी।

बस्तर क्षेत्र में मुस्लिम डॉक्टर खान की एंट्री

1910 के आसपास ब्रिटिश मेडिकल सर्विस से जुड़े डॉ. खान जगदलपुर पहुंचे। वे एक युवा मुस्लिम डॉक्टर थे, जिन्हें महामारी नियंत्रण के लिए भेजा गया था। बस्तर की स्थिति देखकर वे स्तब्ध रह गए। उन्होंने देखा कि यह क्षेत्र महामारी से काफी ग्रसित है, लोग जिंदा कंकाल बनकर रह गए हैं साथ ही वे इलाज के लिए अपनी ही पूजा अर्चना में व्यस्त है। इन सब चीजों को देखते हुए डॉक्टर खान ने बिना किसी आर्थिक लाभ कमाए तुरंत इलाज शुरू किया।

आदिवासी जनजातियों के लोगों में एक आचरण आज भी विद्यमान है और पहले भी थी वह यह है कि वे अपने जनजीवन और धार्मिक कार्यों में किसी भी बाहरी व्यक्ति का दखल पसंद नहीं करते हैं। वे पहले से अंग्रेजों के खिलाफ थे और उन्हें भगाने की पूरी कोशिश कर रहे थे। इन सब कारणों के वजह से डॉक्टर खान भी आदिवासियों को पसंद नहीं आए। डॉक्टर खान के इलाज के तरीके आदिवासी अपनाना नहीं चाहते थे। परंतु डॉक्टर खान एक पढ़े लिखे और बुद्धिमान व्यक्ति थे,

उन्होंने जबरदस्ती नहीं की, बल्कि स्थानीय संस्कृति को समझा। उन्होंने बैगा-गुनिया से जड़ी-बूटियों का अध्ययन किया और पाया कि कुछ पारंपरिक उपचार और औषधि महामारी के लक्षणों से लड़ सकते हैं।

उन्होंने आदिवासियों के इलाज के लिए आदिवासियों के ही तरीके को अपनाया और महामारी के दवाई को देवता की दवा के रूप में आदिवासियों को देना शुरू किया। उनका मुस्लिम होना यहां के आदिवासियों के लिए बाहरी व्यक्ति का छवि बनाता था, परंतु उनके इलाज से आदिवासी इतने प्रभावित हुए कि उन्हें भगवान की तरह पूजने लगे। उनकी सहानुभूति ने आदिवासियों का दिल जीत लिया। वे जंगलों में घूमते, रोगियों के घर जाते और राजा से भी मिले, जिन्होंने उनका समर्थन किया।

घर जात्रा का महत्व

बस्तर की 'घर जात्रा' परंपरा डॉ. खान के प्रयासों का केंद्र बिंदु बनी। यह गोंड जनजाति की प्राचीन रस्म है, जहां देवी को घर-घर बुलाकर पूजा की जाती है। यह सामूहिक उत्सव है, जो महामारी के समय रोग निवारण के लिए आयोजित होता था। डॉ. खान ने इसे महामारी नियंत्रण का हथियार बनाया। उन्होंने आदिवासियों के धार्मिक अनुष्ठानों को अपने चिकित्सा पद्धति के साथ जोड़ते हुए इलाज प्रारंभ किया था। पूजा के दौरान, वे महामारी की गोलियां चढ़ावे के साथ बांटते और बैगा को सह-उपचारक बनाते थे, क्योंकि बैगा जनजाति प्राचीन काल से ही आदिवासियों के डॉक्टर की तरह कार्य करते थे। इन सभी का परिणाम काफी सकारात्मक निकला। लोग इन दवाओं को देवी के प्रसाद के रूप में ग्रहण करने लगे। इस दृष्टिकोण ने न केवल मौतें रोकीं, बल्कि समुदाय को एकजुट किया। 1920 तक बस्तर में मलेरिया दर 50% घटी। यह मॉडल बाद में अन्य आदिवासी क्षेत्रों के लिए प्रेरणा बनी।

आदिवासी देवताओं के साथ होती है खान देवता की भी पूजा

प्राचीन काल से ही आदिवासी काफी भोले और सच्चे दिल के रहे हैं। वे जिस भी चीज से चाहे वह व्यक्ति हो या प्रकृति कुछ प्राप्त करते हैं तो वे उसे अपने भगवान की तरह पूजने लगते हैं। ऐसा ही डॉक्टर खान के साथ ही हुआ। इसी महामारी से उनकी मृत्यु के बाद आदिवासियों ने उनकी स्मृति में केशकाल घाटी में भंगाराम माता मंदिर के पास में ही उनका एक मंदिर बनवाया। जहां एक शिवलिंग के आकार का पत्थर और एक छड़ी रखी हुई है। आदिवासियों के मुताबिक खान देवता, माता के काफी करीबी माने जाते हैं और इन्हें भी मुसलमानों की तरह हलाला पद्धति से बलि चढ़ाई जाती है। खान देवता को हुक्का,पान और सुपारी चढ़ाया जाता है। आदिवासियों में आज भी यह मानना है कि खान देवता उनकी बीमारियों और फसलों से संबंधित समस्याओं को दूर करते हैं।

Next Story