Dr. AR Dalla सिकल सेल एनीमिया एक ऐसी अनुवांशिक बीमारी है, जिससे विश्व के पांच प्रतिशत लोग प्रभावित है। सिकल सेल रोग के कारण विश्व में 5000 बच्चे प्रतिदिन पैदा होते है और इसमें से 60 प्रतिशत बच्चों की मृत्यु 5 वर्षों के पहले हो जाती है। सदियों तक इस बीमारी की पहचान नहीं हो सकी। वर्ष 1910 में डॉक्टर मेसन एवं जेम्स हेरिक ने पहली बार अपने माइक्रोस्कोप में लाल रक्त के गोलाकार हीमोग्लोबिन को हसिये के अर्धचंद्रार विकृत रूप में इसे देखा इस विकृति में हिमोग्लोबिन के लाल रक्त कण नुकिले और कठोर होकर शरीर की सुक्ष्म रक्त वाहिनों में फंसकर रक्त प्रवाह बाधित कर देते है। परिणामस्वरूप शरीर के फेफडे़, तिल्ली, लिवर, किडनी, और मस्तिष्क जैसे अंगो को प्रभावित कर अल्प आयु में ही मृत्यु का कारण भी बनते है।
बहुत दिनों तक इस रोग के निदान पर प्रगति नहीं हुई। पहले यह रोग अश्वेत अफ्रीकन (नीग्रो) लोगों का रोग माना जाता था। चिकित्सा विज्ञान की प्रगति से मालूम हुआ कि यह विकृति भारत वर्ष, अरब, और मेडिटरेनियन के ऐसे देशों में व्याप्त है जहां घने जंगल है और मलेरिया का प्रकोप है। कालांतर में प्रवासित लोगों के माध्यम से यह रोग यूरोप और अमेरिका तक पहुंचा।
वर्ष 1952 में भारतवर्ष में इसका संज्ञान लिया गया। देखा गया कि यह रोग मध्य भारत के गुजरात, विदभर्, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड, और आंध्रप्रदेश की एक पट्टी में देखा गया, जहां आदिवासी और पिछड़े लोग बहुतायत से रहते है। इस क्षेत्र में 15 प्रतिशत से 30 प्रतिशत लोग सिकल रोग के वाहक हैं। भारत की व्यापक जनसंख्या को देखते हुए यह अनुमान है कि विश्व के आधे सिकल वाहक भारत वर्ष में रहते हैं।
अंततः वर्ष 2008 में संयुक्त राष्ट्र संगठन ने इसका संज्ञान लिया और घोषणा की कि सिकल सेल ऐसी घातक अनुवांशिक बीमारी है, जिसका संज्ञान सभी प्रभावित देशों को लेना होगा। संयुक्त राष्ट्र संगठन ने अपने प्रस्ताव में कहा कि विश्व के सभी प्रभावित देश अपने स्वास्थ्य कार्यक्रम में इस घातक अनुवांशिक रोग को स्थान दे। इस पृष्ठभूमि में संयुक्त राष्ट्र संगठन ने प्रतिवर्ष 19 जून को ”विश्व सिकल दिवस” मनाने की घोषणा की। इस वर्ष 2024 के विश्व सिकल दिवस पर सभी प्रभावित देशों को ”एकजूट” होकर जन जागरण अभियान चलाने का ”थीम” दिया गया है।
छत्तीसगढ़ राज्य की स्थापना के साथ ही इस रोग का संज्ञान लिया जा चुका था। छत्तीसगढ़ में वर्ष 2004 से ”प्रोजेक्ट सिकल छत्तीसगढ”़ प्रारंभ हुआ , रायपुर में मालेकुलर और जेनेटिक लैब की स्थापना हुई , छत्तीसगढ़ विधानसभा में सर्वसम्मति से सिकल सेल नियंत्रण पर एक ”संकल्प” पारित हुआ। वर्ष 2008 में रायपुर में आयोजित अंर्तराष्ट्रीय सिकल कांग्रेस में, विश्व का ध्यान आकर्षित करने हेतू एक प्रस्ताव पारित कर भारत के महामहिम को भी सौंपा गया। रायपुर में देश के पहले सिकल सेल नियंत्रण संस्थान की स्थापना हुई।
भारतवर्ष में राष्ट्रीय स्तर सिकल कार्याें को प्रगति तब मिली जब भारत के आदरणीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका संज्ञान लिया। प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होने अपने पहले जापान दौरे में ही याकोहोमा यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों को सिकल जैसे अनुवांशिक रोग के उन्मूलन के अनुसंधान पर विशेष कार्य प्रारंभ करने का आग्रह किया। पिछले वर्ष माननीय प्रधानमंत्री ने सिकल सेल विकृति की रोकथाम के लिए ”मिशन मोड पर” वृहत प्रयास का प्रारंभ करने की घोषणा करते हुए मध्य प्रदेश के शहडोल में एक विशेष सिकल सेल नियंत्रण केंद्र का उद्घाटन किया । प्रारंभिक तौर पर यह भारतवर्ष के 17 प्रभावित राज्यों के 275 जिलों के आदिवासी इलाकों में सिकल रोग के सर्वेक्षण, रोकथाम एवं जन जागरण का ”मिशन मोड” में कार्य करने का निर्देश दिया।
माननीय प्रधानमंत्री जी ने वर्ष 2047 तक सिकल व्याधि के उन्मूलन का लक्ष्य भी निर्धारित किया है। इस अवसर पर प्रभावित जिलों के डॉक्टर /नर्सों स्वास्थ्य केंद्रा,े और शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए एक विशेष माडल (प्रारूप) का विमोचन भी किया गया।
सिकल पीड़ित विवाह योग्य युवकों के लिए ”जेनेटिक काउंसलिंग” के लिये एक ”डिजिटल” कार्ड भी बनाया गया है, जो विवाह पूर्व की समझाइश (सिकल सेल कुंडली) पर भी ध्यान आकर्षित करेगा।
अब आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की प्रगति के साथ सिकल सेल रोग उन्मूलन की नई विधाओं पर वैज्ञानिक अनुसंधान हो रहे हैं। अफ्रीका के सिकल रोग की तुलना में भारतीय सिकल रोग ग्रस्त शिशुओं में फीटल हीमोग्लोबिन की मात्रा अधिक है, इसके चलते भारत के सिकल ग्रस्त बच्चों में दर्द की तीव्रता और मृत्यु दर कम देखी गई है। इस तथ्य के आधार पर अब फीटल हीमोग्लोबिन को एडल्ट हीमोग्लोबिन में परिवर्तित करने की जेनेटिक इंजीनियरिंग पर कार्य हो रहा है। इसके अन्वेशण करने के लिए नवजात बच्चों का रक्त परीक्षण किया जाना आवश्यक है। कुछ वर्षों पूर्व छत्तीसगढ़ शासन ने सभी नवजात शिशुओं का रक्त परीक्षण अभियान प्रारंभ किया था किंतु इस पर प्रगति अपेक्षित है।
हायड्रोक्सी यूरिया और कुछ नई दवाओं के चलते सिकलिंग की प्रक्रिया में कमी आई है। जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम से जीन रिप्लेसमेंट (प्रतिस्थापन) पर कार्य हो रहे हैं। अब ”फिटल हीमोग्लोबिन” को ”एडल्ट हिमोग्लोबिन” में परिवर्तित कर सिकल सेल रोगी को दिया जा सकेगा। आने वाले समय में प्रयोग शाला में नए जीन का निर्माण कर बोन मैरो (अस्ति मज्जा )के विकृत जीन केे बदले स्वस्थ जीन को प्रतिस्थापित किया जाने पर भी शोध चालू है समय बदल रहा है। आने वाला समय, नई रौशनी लेकर आएगा। भविष्य में हम सिकल गाथा की पूर्ण समाप्ति की ओर बढ़ रहे है।