नंदकुमार साय की इनसाइड स्टोरी : भाजपा में पहले जैसा महत्व चाहते थे साय, नेतृत्व तैयार नहीं, आरएसएस का भी सपोर्ट नहीं; कांग्रेस ने लपका मौका
छत्तीसगढ़ के बड़े आदिवासी नेता के कांग्रेस प्रवेश से सीएम भूपेश बघेल का कद बढ़ा. दूसरे राज्यों में कांग्रेस के बड़े नेता पार्टी छोड़ रहे, यहां भाजपा को झटका दे दिया.
मनोज व्यास
रायपुर. छत्तीसगढ़ के बड़े आदिवासी नेता नंदकुमार साय के कांग्रेस प्रवेश के बाद यह सवाल सबके मन में है कि ऐसा क्या हुआ, जो साय ने इतना बड़ा फैसला ले लिया. दूसरा यह कि कौन मध्यस्थ बना? 77 वर्षीय साय को भाजपा ने तीनों सदनों में जाने का मौका दिया. यानी विधानसभा से लेकर लोकसभा और राज्यसभा भी. इसके अलावा पांच साल तक अनुसूचित जनजाति आयोग के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे. फिर ऐसा क्या हुआ कि उन्हें पार्टी में पर्याप्त सम्मान नहीं मिलने की टीस उठने लगी? क्या बड़े नेता इस बात से अनजान थे या जान-बूझकर इस सवाल से दूर भागते रहे? कांग्रेस में जाकर साय को क्या मिल जाएगा? वैसे साय के कांग्रेस प्रवेश से सीएम भूपेश बघेल का कद बढ़ गया, क्योंकि जब देश में जब कांग्रेस छोड़ने की खबरें आम है, तब छत्तीसगढ़ में भाजपा का एक वटवृक्ष उखड़ गया. इसमें राजधानी रायपुर के मेयर एजाज ढेबर भी भूमिका भी सामने आ रही है.
नंदकुमार साय के बारे में जब बात होती है, तब एक ऐसे नेता की छवि सामने आती है, जो अपनी पार्टी और सरकार की कमियों पर भी मुखर होकर मीडिया में बयान देते थे. वे अविभाजित मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों में प्रदेश अध्यक्ष रहे. पहले नेता प्रतिपक्ष बने. तीन बार विधायक, तीन बार सांसद और दो बार राज्यसभा में रहे. वरिष्ठ थे, इसलिए सभी सम्मान देते थे. हालांकि कुछ नेता यह बोलने से भी नहीं चूकते कि जब-जब वे पार्टी या सरकार के खिलाफ बयान देते थे, तब वे ऐसा समय होता था, जब आगे उन्हें कौन से पद में जाना है, उसकी भूमिका तय होती थी. यानी राज्यसभा या अनुसूचित जनजाति आयोग में जाने से पहले उनकी नाराजगी और फिर खामोशी को इसी बात से जोड़कर देखा गया कि पद मिलने के बाद वे चुप हो गए.
15 साल की सत्ता के बाद जब भाजपा विपक्ष में आ गई, तब साय के नाम की चर्चा एक बार फिर प्रदेश अध्यक्ष के लिए होने लगी. हालांकि जिम्मेदारी विष्णुदेव साय को मिली और बाद में नंदकुमार यह कहने से नहीं चूके कि वर्तमान नेतृत्व वैसा संघर्ष नहीं कर रहा है, जैसा उनके समय में (जोगी शासन) किया करते थे. यही वह बात है, जहां साय हमेशा अटक जाते थे. वे पार्टी में पहले जैसा महत्व चाहते थे. वे चाहते थे कि पार्टी उनके निर्णय के मुताबिक चले. उनसे हर बात के लिए सलाह लें. सरकार के खिलाफ नेता आक्रामक बयान दें. उनके इन सुझावों को महत्व नहीं दिया गया. हालांकि डी. पुरंदेश्वरी जब छत्तीसगढ़ प्रभारी बनीं, तब वे बराबर पूछपरख करती रहती थीं, लेकिन ओमप्रकाश माथुर के प्रभारी बनने के बाद थोड़ी पूछपरख कम हुई है.
साय समय-समय पर पार्टी नेतृत्व के समक्ष अपनी बातों पर जोर दिया करते थे, लेकिन उन्हें महत्व नहीं मिला. वे यात्रा निकालना चाहते थे. इसकी मंजूरी नहीं मिली. आरक्षण के मुद्दे पर वे अपने निवास के सामने अकेले धरने पर बैठ गए और पार्टी का कोई बड़ा नेता उनके पास नहीं पहुंचा. पार्टी के ही नेता मानते हैं कि वे खुद को पार्टी समझते थे, इसलिए पार्टी लाइन से बाहर जाकर भी कई बयान देते थे या निर्णय कर लेते थे. ऐसे में भाजपा के पास यह मजबूरी थी कि वरिष्ठ नेता का पार्टी में सम्मान बरकरार रहे, लेकिन उन्हें किसी तरह साध कर रखें, जिससे वे पार्टी लाइन के खिलाफ जाकर अपनी मर्जी के मुताबिक न चल पाएं. ये सारी बातें ऐसे समय चल रही थीं, जब पार्टी में बड़े स्तर पर नेतृत्व परिवर्तन की कवायद चल रही थी. नए लोगों के हाथों नेतृत्व का हैंडओवर किया जा रहा था. ऐसे में कई वरिष्ठ नेता खुद को किनारे किए जाने के दुख में दुखी थे. इनमें साय भी थे. खबर है कि उन्होंने आरएसएस के प्रमुख नेताओं तक भी अपनी बात रखी थी और वहां से भी कोई संतोषजनक निराकरण नहीं हुआ.
भाजपा में इतनी सारी चीजें घट रही थी, तब सीएम भूपेश बघेल की नजर इन घटनाओं पर थी. वे पहले ही यह मुद्दा उठाते रहे हैं कि भाजपा में आदिवासियों का सम्मान नहीं हो रहा. भाजपा ने विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर विष्णुदेव साय को हटाकर अरुण साव को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर और मौका दे दिया. आरक्षण के मुद्दे को लेकर नंदकुमार साय के धरने से कहानी में मोड़ आया. सीएम बघेल ने मौका भांप लिया. 2018 के चुनाव से पहले भाजपा ने उनकी टीम के कार्यकारी अध्यक्ष रामदयाल उइके को पार्टी प्रवेश कराया था. इस बार बारी कांग्रेस की थी. इसमें एक नाम मेयर एजाज ढेबर का आता है. सूत्रों के मुताबिक सीएम के इशारे पर ढेबर ने ही साय के साथ बातचीत की. ढेबर और साय के बीच पुराने संबंध थे. उन संबंधों का हवाला देकर ही बात आगे बढ़ी. दो-ढाई महीने पहले सीएम के साथ एक मुलाकात हुई. बातचीत आगे बढ़ती रही और 30 अप्रैल को अचानक इस्तीफे का बम फूटा. इससे पहले ढेबर के साथ ही साय सीएम हाउस गए थे. सोमवार सुबह भी ढेबर के साथ ही कांग्रेस भवन पहुंचे थे.
साय को कांग्रेस में शामिल होने से क्या मिला? इस सवाल का जवाब यह है कि साय यह समझ गए थे कि उन्हें अब भाजपा में कुछ मिलने वाला नहीं है. ऐसे में कांग्रेस प्रवेश कर वे एक नई पारी खेलने के लिए राजी हो गए. वैसे एक चर्चा यह भी है कि उनके बेटे को कांग्रेस टिकट देगी.
साय के प्रवेश से कांग्रेस को क्या फायदा होगा? साय भाजपा के वरिष्ठ नेता होने के साथ-साथ आदिवासी समाज में भी सक्रिय नेता हैं. ऐसे में उनके कांग्रेस प्रवेश से एक माहौल बनेगा. डी लिस्टिंग, धर्मांतरण जैसे भाजपा के मुद्दों का जवाब देने के लिए साय को आगे किया जा सकता है.
साय को क्या काम देगी पार्टी? साय के कांग्रेस प्रवेश के बाद कांग्रेस में भी उत्साह है. सीएम भूपेश बघेल ने उनकी तारीफ की. बदले में साय ने भी सीएम के साथ-साथ उनकी फ्लैगशिप योजना नरवा गरुवा घुरवा बारी, राम वन गमन पथ की तारीफ की. अब कांग्रेस उन्हें भाजपा के हमलों के बदले जवाबी हमले की जिम्मेदारी दे सकती है. आदिवासी बहुल सरगुजा और बस्तर में उन्हें फोकस करने कहा जा सकता है. साय लंबे समय तक आरएसएस और भाजपा से जुड़े रहे, इसलिए वे रीति-नीति को समझते हैं. इसमें भी वे महत्वपूर्ण कड़ी हो सकते हैं. साथ ही, डी लिस्टिंग, धर्मांतरण, केंद्र की योजनाओं आदि के कमियों को सामने लाने के लिए कांग्रेस उन्हें आगे कर सकती है.