Indian Cinema and Train: लोगों के संघर्ष की सिनेमा में आवाज है ट्रेन, बंटवारे के साथ मौजूद है प्यार, मोहब्बत के निशान
रायपुर। Indian Cinema and Train: कोरोना के इस दौर में एक बार फिर लोगों का जमघट ट्रेनों में सवार हो कर अपनी मंजिल की तरह निकल पड़ा है। ट्रेन जो कि अंग्रेजों की दी हुई एक ऐसी विरासत है जिसको विकास के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है लेकिन क्या आप को मालूम है कि इस ट्रेन ने प्रवासियों, शरणार्थियों, मजदूरों और महिलाओं की कहानियों को अपने में समेट कर रखा हुआ है। सिनेमा के माध्यम से ट्रेन की तरह-तरह से प्रयोग करके दिखाया जाता रहा है। गदर(2001) फिल्म का दृश्य तो भुलाये नहीं भूलता होगा जब ट्रेनों में लाशों को भर-भर कर भेजा गया और तारा अपनों के खून को देख कर पागल हो जाता है।
वीभत्सता जगाती हैं फिल्में
भाग मिल्खा भाग (2013) में यही ट्रेन मिल्खा सिंह को अपनों से मिलने में मदद कर होती है तो वहीं ट्रेन टू पाकिस्तान (1998) में पूरब की ओर जाने वाली हिन्दू ट्रेन और पश्चिम की ओर जाने वाली मुस्लिम ट्रेन के रूप में बदला लेने की भावना को दर्शाया गया है। 1947 अर्थ की यही ट्रेन, खुशमिजाज दिलनवाज को हत्यारे के रूप में बदलने पर मजबूर कर देती है क्योंकि उसने अपनी बहनों की कटी लाशें वीभत्स अवस्था में देखी हैं।
दिखाता है अपनों से बिछड़ने का गम
धर्मपुत्र (1961) में यही ट्रेन बंटवारें को दर्शाती है तो गरम हवा (1973) में सलीम मिर्जा के अपनों को बिछड़ने का दर्द ट्रेन के शोर में ही दिखायी पड़ता है। फिल्मों में मनुष्य के भीतरी संघर्ष को ट्रेन की आवाज से दर्शाया जाता रहा है चाहे वह हॉलीवुड की प्रसिद्ध फिल्म गॉडफादर (1972) में माइकल के द्वारा हत्या के वक्त का दृश्य हो या फिर जब बैंडिट क्वीन (1994) में फूलन देवी की गिरफ्तारी के निर्णय के समय का दृश्य हो।
आशिकी का दर्द बढ़ाती हैं ट्रेन
मसान (2015) के दृश्य में विरह में लगभग पागल हो चुके प्रेमी को दुष्यंत की कविता के माध्यम से दर्शाया गया है। तू किसी रेल सी गुजरती है, मैं किसी पुल सा थरथराता हूं, लोगों को आज भी याद है। प्रेमी और प्रेमिका के मिलन पर दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे के क्लाइमैक्स को आज भी कई तरीके से याद किया जाता है।
शोले(1975) फिल्म में डाकूओं की लड़ाई का वह खतरनाक सीन तो शायद ही किसी ने भुलाया होगा। इसमें संघर्षो के बीच आगे चलते रहने का संदेश फिल्म का आखिरी दृश्य देता है जब वीरू ट्रेन में बसंती से मिलता भी है।
महान फिल्मकार सत्यजीत रे ने देश के विकासक्रम को दर्शाने के लिए पांथेर पांचाली (1955) में ट्रेन की आवाज पर भागते बच्चों का दिखाया है तो प्रसिद्ध फिल्मकार गुलजार की फिल्म इजाज़त (1987) की पूरी फिल्म ही एक ट्रेन के स्टेशन के इर्द-गिर्द ही बुनी हुई है। प्रेम त्रिकोण की यह कहानी ट्रेन के आगे बढ़ने के साथ खत्म हो जाती है।
यादों की बारात (1973) तो ट्रेन के बगैर पूरी ही नहीं हो सकती थी और ट्रेन के बिना कोई पकीजा (1972) की कल्पना भी नहीं कर सकता है।
भारतीय सिनेमा में ट्रेन हकीकत को पूरा करने का एक ऐसा माध्यम है जो कि संघर्ष, विराम, विकास और प्रेम-विरह दोनों के लिए इस्तेमाल होता आया है और होता रहेगा। इसके अलावा आप खुद भी ध्यान दे सकते हैं कि ट्रेन न दिखाने के बावजूद, ट्रेन की तरह-तरह की आवाज को ड्रामा दिखाने के लिए किस तरह से भारतीय फिल्मकारों ने इस्तेमाल किया है।
डॉ महेश कुमार मिश्रा