फ़्लैशबैक: ट्रेंड सेटर बनी थी 'एक दूजे के लिए', 1981 की इस फिल्म ने गिरायी उत्तर-दक्षिण की दीवार...
अनिल कीर्ति
साल था 1981। बॉलीवुड में फ़िल्म 'एक दूजे के लिए' रिलीज हुई। कमल हासन और रति अग्निहोत्री स्टारर इस फिल्म ने उत्तर-दक्षिण की दीवार गिरा दी थी। अंत त्रासद होने के बावजूद ये फिल्म बहुत जादुई थी। फिल्म ने उस समय बॉक्स ऑफिस के तमाम रिकॉर्ड तोड़ दिए थे। निर्देशक के.बालचंद्र की ये पहली हिंदी फिल्म थी। फिल्म में नए चेहरे होने के बावजूद फिल्म हिंदी बेल्ट में काफी पसंद की गई। हालांकि जब फिल्म बनकर तैयार हुई, तो कोई डिस्ट्रीब्यूटर खरीदने के लिए तैयार नहीं था। फिल्म देखकर निर्देशक को सुझाव दिए गए कि वे इसका अंत बदल दें, क्योंकि यह काफी ट्रेजिक है। डिस्ट्रीब्यूटर जब फिल्म खरीदने को तैयार नहीं हुए तो के बालचंद्र ने ये फिल्म शोमैन कहे जाने वाले राज कपूर को दिखाई। राजकपूर ने भी उन्हें फिल्म का अंत बदलकर हैप्पी एंड करने की सलाह दी। उनका ये मानना था कि ट्रेजिक फिल्म लोगों के गले नहीं उतरेगी। लेकिन के बालचंद्र ने राजकपूर की राय लेने के बाद भी फिल्म का एंड नहीं बदला। ये फ़िल्म एक मल्टीलिंगुअल फ़िल्म थी जिसका अंत दुखांत था। यानी नीम और करेला एक साथ परोसने का साहस, वो भी उन दर्शकों के समक्ष जिन्हें सुखांत अंत और सतही मनोरंजन की स्पून फीडिंग का रोग लगा दिया गया हो। वैसे तमाम विश्व प्रसिद्ध प्रेम कहानियों का अंत दुखांत और अधूरापन ही है। जैसे-तैसे फिल्म रिलीज हुई। ट्रेजिक एंड उस दौर में हिंदी दर्शको के लिए एक नया एक्सपेरिमेंट था। लेकिन रिलीज होते ही फिल्म ने धूम मचा दी। ये ट्रेंडसेटर साबित हुई और क्लासिक फिल्मों की श्रेणी में शामिल हुई। आज भी दर्शक इसे बेहद पसंद करते हैं।
फिल्में ट्रेंड पैदा करती हैं। किसी ज़माने में नाटक भी ट्रेंड पैदा किया करते थे। जगह-जगह अर्थात ऐतिहासिक इमारत, पहाड़, पेड़ आदि पर प्रेमी-प्रेमिका का नाम लिखा होने का ट्रेंड शायद जिस फ़िल्म ने पैदा किया वो फ़िल्म थी एक दूजे के लिए। अब यह नोट पर फलां बेवफ़ा है लिखने का ट्रेंड किसने पैदा किया यह एक खोज का विषय हो सकता है। लेकिन इस फ़िल्म ने यकीनन प्रेम की नई परिभाषा लिखी थी। परिवारों से बगावत कर प्रेम की नई परिभाषा गढ़ने वाले कमल हासन और रति अग्निहोत्रि दोनों ने ही हमेशा के लिए लोगों के दिल में जगह बना ली। रति अग्निहोत्री का सलवार और लंबा कुर्ता फैशन ट्रेंड बन गया। फ़िल्म का संपादन, गोवा का सुंदर और खतरनाक फिल्मांकन, संवाद और अभिनय सब कुछ उम्दा।
जादुई संगीत ने रचा इतिहास
फिल्म 'एक दूजे के लिए' ने हिंदी गीतों को एसपी बालासुब्रमण्यम जैसी आवाजें दीं। एसपी बालासुब्रमण्यम को नेशनल अवार्ड भी मिला। वहीं फिल्मफेयर में एक दूजे के लिए 13 श्रेणियों में नामांकित हुई और तीन अवॉर्ड भी अपने नाम किए। फिल्म के संगीत में अलग तरह का जादू है। आप सिर्फ 'तेरे मेरे बीच में कैसा है ये बंधन' गाना सुन लीजिए, दावा है कि फ़िल्म के बाकी संगीत अपने आप सुनिएगा। इस गीत के लिए आनंद बक्षी साहब को फ़िल्म फेयर अवार्ड भी मिला था। फ़िल्म में गैर-हिन्दीभाषी गायक एसपी बालासुप्रमन्यम से गाना गवाने के पीछे भी तर्क है। फ़िल्म का नायक दक्षिण भारतीय है और वो पहले के घंटे तो हिंदी में कुछ बोलता ही नहीं है। तो ऐसे चरित्र के लिए गायक भी कोई ऐसा चाहिए था जिसकी हिंदी फिल्म के चरित्र के मेल खाती हो। इसलिए एसपी बालासुप्रमन्यम का चयन किया गया था। लता मंगेशकर की आवाज में 'सोलह बरस की बाली उमर को सलाम...' ये गाना अपनी पहली लाइन के आलाप से ही लोगों पर जादू कर देता है। एक लड़की अपनी प्रेमी को याद करते हुए उन सारी जगहों पर भटक रही हैं, जहां दोनों के साथ बिताए लम्हों की यादें बोई हुई हैं। फिल्म एक दूजे के लिए के गानों में गीतकार आनंद बक्षी ने प्रेम का शायद ही कोई एहसास हो जो न लिखा हो। गोवा के बीच पर मोटरसाइकिल पर बैठे वासु-सपना जब प्रेम के सबसे असीम आनंद के पास होते हैं तो के बालाचंदर अगले सीन में वासु को एक लट्टू नचाता दिखाते हैं, जो नाच रहा होता है सपना के पेट के ऊपर। पूरे जमाने की जवानी इन गानों पर तब लट्टू हो गई थी। फिल्म में आनंद बक्षी की लिखावट का नमूना ऐसा था कि 'मिलते रहे यहां हम, ये है यहां लिखा, इस लिखावट की ज़ेर ओ ज़बर को सलाम। साहिल की रेत पर यूं लहरा उठा ये दिल, सागर में उठने वाली हर लहर को सलाम।' बताते हैं कि इस गाने की शूटिंग करते जब 'ज़ेर ओ ज़बर' का ज़िक्र आया तो के बालाचंदर ने एकदम से शूटिंग रोक दी। पूछने लगे कि ये ज़ेर ओ ज़बर मतलब क्या होता है। पूरी यूनिट में किसी को नहीं पता। ये हुआ कि गीतकार को बुलाओ। अब शूटिंग गोवा में चल रही। आनंद बक्षी मुंबई में नहीं। उनकी खोजबीन शुरू हुई तो पता चला कि वो हैदराबाद में हैं। के बालाचंदर ने आनंद बक्षी को हैदराबाद से गोवा बुलवा लिया सिर्फ ये समझने के लिए इस शब्द के जो मायने हैं, गाना उनके हिसाब से शूट हो रहा है कि नहीं। इतनी बारीकी से काम हो और मशहूर न हो, भला कैसे हो सकता है। फ़िल्म का एक और गीत "मेरे जीवन साथी प्यार किए जा" का अलग से ज़िक्र करना ज़रूरी है। इस गीत के बोलों में एक बहुत ही ख़ास बात यह है कि उसके बोल हिंदी फिल्मों के टाइटल लेकर लिखे गए हैं। उस वक्त ये अपनेआप में अनूठी बात थी।
ये है कहानी
फिल्म की कहानी कुछ ऐसी है कि एक तमिल युवा वासु (कमल हासन) और उत्तर भारतीय महिला सपना (रति अग्निहोत्री) के बीच प्यार प्यार हो जाता है। वे दोनों गोवा में पड़ोसी हैं और पूरी तरह से अलग पृष्ठभूमि से आते हैं और शायद ही कभी दूसरे की भाषा बोल सकते हैं। उनके माता-पिता एक-दूसरे को तुच्छ मानते हैं और उनके साथ नियमित झड़प होती है। जब वासु और सपना अपने प्यार को स्वीकार करते हैं, तो उनके घरों में अराजकता होती है और उनके माता-पिता इस विचार को अस्वीकार करते हैं। प्रेमी को अलग करने के लिए एक चाल के रूप में, उनके माता-पिता एक शर्त रखते हैं कि वासु और सपना एक साल के लिये एक दूसरे से दूर रहेंगे। इस तय वक्त के बाद, यदि वे फिर भी एक साथ रहना चाहते हैं, तो वे शादी कर सकते हैं। साल के दौरान उनके बीच कोई संपर्क नहीं होना चाहिए। वासु और सपना ये शर्त मानना तो नहीं चाहते, लेकिन फिर भी इससे सहमत होते हुए एक साल के लिए अलग होने का फैसला करते हैं। वासु हैदराबाद चला जाता है। वहां उसकी मुलाकात विधवा संध्या (माधवी) से होती है, जो उसे हिंदी सिखाती है। इस बीच, सपना की मां सपना के दिमाग से वासु का ख्याल निकालने के लिए गोवा में एक परिवार के मित्र के बेटे, चक्रम (राकेश बेदी) को लाती है। लेकिन वह उससे प्रभावित नहीं होती। मैंगलोर में एक मौका मिलने पर चक्रम वासु से कहता है कि सपना उससे शादी करने के लिए सहमत हो गई है। परेशान वासु बिना सच जानने की कोशिश किए बदले में संध्या से शादी करने का फैसला कर लेता है। हालांकि संध्या को वासु के असली प्यार के बारे में पता चला और वो गोवा में सही स्थिति जानने और प्रेमियों के बीच गलतफहमी को दूर करने के लिए जाती है। वासु फिर गोवा लौटता है और सपना के माता-पिता को हिंदी के साथ प्रभावित करता है। लेकिन संध्या को छोड़कर जब वासु सपना से मिलने गोवा जाता है, तो संध्या का भाई (रज़ा मुराद) उस पर हमले के लिए किराये का गुंडा भेजता है। इस बीच, मंदिर में एक लाइब्रेरियन (सुनील थापा) सपना के साथ बलात्कार करने के बाद उसे मरने के लिए छोड़ देता है। आखिर में यहां वासु पहुंचता है और वासु और सपना चट्टान से कूदकर आत्महत्या कर लेते हैं। फिल्म इस त्रासदी से समाप्त होती है। इस फिल्म के बाद उत्तर भारतीयों को दक्षिण की काफ़ी चीज़ें पता चलीं। ये फ़िल्म यूपी के लोगों के लिए एक कल्चरल शॉक जैसी थी। इसके गाने रेडियो पर बजे और क्या खूब बजे।