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Ramesh Nayyer: पत्रकारिता के पारस रहे 'रमेश नैयर ने खेली छह दशक की लंबी पत्रकारीय पारी...

रमेश नैयर जी अपनी बेबाक और बेलौस पत्रकारिता के लिए पूरे देश में सम्‍मान की दृष्टि से देखे जाते थे। अंग्रेजी में स्‍नातकोत्तर नैयर जी मूलत: अंग्रेजी के लेक्चरर के तौर पर काम करते थे। उनका उस समय वेतन था, तीन सौ रुपये प्रतिमाह। लेकिन उनका रचनात्‍मक मन, इस नौकरी में रमता ही नहीं था।

Ramesh Nayyer: पत्रकारिता के पारस रहे रमेश नैयर ने खेली छह दशक की लंबी पत्रकारीय पारी...
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By NPG News

प्रो. संजय द्विवेदी (महानिदेशक, आईआईएमसी)

रायपुर। उच्‍च स्‍तरीय पत्रकारिता की बात चले या पत्रकारिता के मानक मूल्‍यों की, हमें ऐसे बहुत कम लोग याद आते हैं, जिन्‍होंने इन्‍हें बचाने-बढ़ाने के लिए पूरे मनोयोग व समर्पण भाव के साथ काम किया। समकालीन हिंदी पत्रकारिता के ऐसे ही सशक्‍त हस्‍ताक्षरों में से एक कहे जा सकते हैं, वरिष्‍ठ पत्रकार रमेश नैयर जी।

छह दशक लंबा पत्रकारीय जीवन

10 फरवरी, 1940 को गुजरात के कुंजाह, जो वर्तमान में पाकिस्तान का हिस्‍सा है, में जन्म लेने वाले रमेश नैयर जी अपनी बेबाक और बेलौस पत्रकारिता के लिए पूरे देश में सम्‍मान की दृष्टि से देखे जाते थे। अंग्रेजी में स्‍नातकोत्तर नैयर जी मूलत: अंग्रेजी के लेक्चरर के तौर पर काम करते थे। उनका उस समय वेतन था, तीन सौ रुपये प्रतिमाह। लेकिन उनका रचनात्‍मक मन, इस नौकरी में रमता ही नहीं था। इसलिए जैसे ही उन्‍हें पता चला कि 'युगधर्म' अखबार को एक ऐसे अनुवादक की जरूरत है, जो पीटीआई से आने वाली अंग्रेजी खबरों को हिंदी में अनुवाद कर सके, तो उन्‍होंने आर्थिक परेशानियों के बावजूद आधे वेतन पर वह नौकरी स्‍वीकार कर ली और इस तरह वर्ष 1965 में उनके पत्रकारिता जीवन की आधारशिला रखी गई। उनकी प्रतिभा का आलोक जब चहुंओर फैलने लगा, तो दूसरे मीडिया संस्‍थानों में उनकी पूछ बढ़ने लगी।

पत्रकारिता एवं साहित्य में उनका योगदान

सागर विश्‍वविद्यालय से अंग्रेजी और रविशंकर विश्‍वविद्यालय से भाषा विज्ञान में एम.ए. रमेश जी ने 'युगधर्म', 'देशबंधु', 'एम.पी. क्रॉनिकल' और 'दैनिक ट्रिब्यून' में सहायक संपादक और 'दैनिक लोकस्वर', 'संडे ऑब्जर्वर' (हिंदी) और 'दैनिक भास्कर' में संपादक के रूप में अपनी सेवायें दीं। इसके अलावा आकाशवाणी, दूरदर्शन और अन्य टी.वी. चैनलों से उनकी कई वार्त्ताओं, रूपकों, भेंटवार्त्ताओं और परिचर्चाओं का प्रसारण हुआ। उन्‍होंने कुछ टेलीविजन धारावाहिकों और वृत्तचित्रों के लिए पटकथा लेखन भी किया। पंडवानी गायिका तीजन बाई और रंगकर्मी हबीब तनवीर के साथ उनके साक्षात्‍कार, वी.एस.नायपॉल के उपन्‍यास 'मैजिक सीड्स' का उनके द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद 'माटी मेरे देश की' काफी चर्चित रहे। पत्रकारिता और आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विषयों पर राष्‍ट्रीय-अंतरराष्‍ट्रीय संगोष्ठियों में भी उनकी काफी सक्रिय भागीदारी रहा करती थी। उन्‍होंने चार पुस्तकों का संपादन और सात पुस्तकों का अनुवाद किया। उनके कद को देखते हुए 2006 में उनके मार्गदर्शन व संचालन में छत्‍तीसगढ़ राज्‍य हिंदी ग्रंथ अकादमी, रायपुर की स्‍थापना की गई।

चार भाषाओं का ज्ञान

अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू और पंजाबी जैसी चार भाषाओं में समान महारत रखने वाले नैयर जी ने पत्रकारिता, संपादन, लेखन और अनुवाद जैसी अलग-अलग विधाओं में अपनी विलक्षण मेधा का लोहा मनवाया। उन्‍होंने अंग्रेजी, पंजाबी और उर्दू की सात पुस्‍तकों का हिंदी में अनुवाद किया था। इसके अलावा उन्‍होंने 'कथा यात्रा' और 'उत्तर कथा' जैसी पुस्‍तकों का भी लेखन किया।

अंतरराष्ट्रीय विषयों पर गहरी पकड़

वैसे तो उनका पत्रकारीय जीवन इतना व्‍यापक रहा कि वह हर विषय पर गहरी समझ और घंटों तक बोलने की सामर्थ्‍य रखते थे, लेकिन अंतरराष्‍ट्रीय विषयों पर लिखने में उनका कोई सानी न था। खासकर, भारत के पड़ोसी देशों से संबंधों पर उनकी गहरी पकड़ थी। अनेक अखबारों के संपादक, ऐसी किसी भी जरूरत के समय सबसे पहले किसी को याद करते थे, तो वह थे रमेश नैयर जी। उन्होंने अंग्रेजी और हिंदी, दोनों भाषाओं की पत्र-पत्रिकाओं में काम किया और देश भर में अपनी कलम का लोहा मनवाया। विलक्षण पत्रकारीय प्रतिभा के धनी नैयर जी ने 'देशबंधु', 'युगधर्म', 'एम पी क्रॉनिकल', 'लोक स्वर', 'ट्रिब्यून', 'संडे ऑब्जर्वर' और 'दैनिक भास्कर' में लंबे समय तक अपनी सेवायें दीं।

साहित्‍य-संस्‍कृति से था विशेष प्रेम

वैसे तो नैयर जी मुख्‍य धारा के मूर्धन्‍य पत्रकार थे, लेकिन साहित्‍य-संस्‍कृति से भी उन्‍हें बहुत लगाव था। 1990 के आसपास, जब उन्‍होंने 'संडे ऑब्‍जर्वर' के हिंदी संस्‍करण के संपादक का पदभार संभाला तो उसे अंग्रेजी का अनुवाद न बनाकर, एक अलग ही पहचान दी। इसमें उन्‍होंने आठ पेज का एक अलग खंड जोड़ा, जो पूरी तरह साहित्‍य, कला-संस्‍कृति, रंगमंच, लोक संस्‍कृति को समर्पित था। संवाद के माध्‍यम से उन्‍होंने देश के तमाम उत्‍कृष्‍ट रचनाकारों, लेखकों, रंगकर्मियों, चित्रकारों, नृत्‍यविदों और सांस्‍कृतिक पत्रकारों से सम्‍पर्क साधा और साहित्‍य-संस्‍कृति से जुडी, देश की ही नहीं बल्कि दुनिया की बेहतरीन सामग्री हिंदी के पाठकों तक पहुंचाई। उन्‍हीं की कल्‍पनाशीलता, मेहनत और प्रयासों का नतीजा था कि देखते ही देखते 'संडे ऑब्‍जर्वर', 'चौथी दुनिया', 'संडे मेल', 'दिनमान टाइम्‍स' जैसे अपने समकालीन हिंदी साप्‍ताहिकों से काफी आगे निकल गया। इस साप्‍ताहिक के कॉलम भी बहुत दिलचस्‍प होते थे। एक स्‍तंभ था 'वह किताब..वह किरदार', जिसमें भारतीय और वैश्विक साहित्‍य की लोकप्रिय, चर्चित और उल्‍लेखनीय रचनाओं के मुख्‍य किरदारों की रचना और खूबियों पर चर्चा की जाती थी।

दूसरा बेहद लोकप्रिय स्‍तंभ 'बहरहाल' था, जिसे नैयर जी खुद लिखा करते थे। 'बहरहाल' के माध्‍यम से वह जनरुचि के विषयों पर बड़े चुटीले अंदाज में सारगर्भित टिप्‍पणी किया करते थे, जिनकी उर्दू मिश्रित हिंदी भाषा, 'आला हुजूर का फरमान है कि मछलियां खामोश रहें' जैसे चुटीले शीर्षक और उन आलेखों में दिये गये शेर पढ़ने वालों को मंत्रमुग्ध कर देते थे। वह बेहद प्रखर वक्‍ता भी थे। उनकी गंभीर वाणी में चुटकुलों और शेरोशायरी का अद्भुत सम्मिश्रण श्रोताओं को बांधे रखता था और वे तब तक कार्यक्रम छोड़कर नहीं जाते थे, जब तक कि नैयर जी अपनी बात पूरी न कर लें।

पत्रका‍रिता के पारस पत्‍थर

रमेश नैयर जी पत्रकारिता के एक ऐसे पारस थे, जिनका स्‍पर्श जिस अखबार को मिलता था, उसके जैसे दिन ही फिर जाते थे। 1978-79 में छत्‍तीसगढ़ से एक नया अखबार शुरू हुआ था, 'लोकस्‍वर'। नैयर जी जब उसके संपादक बने, तो इस अखबार की लोकप्रियता का ग्राफ तेजी से ऊपर चढ़ने लगा। इसकी वजह थी इसकी निष्‍पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता। इस अखबार के बारे में यह प्रसिद्ध था कि जिस सच को दूसरे अखबार छिपाते हैं, लोकस्‍वर छापता है। इसके अलावा, नैयर जी के लिखे संपादकीय, लोकस्‍वर की वह पूंजी हुआ करते थे, जिसका कुछ कुछ हिस्‍सा हर पाठक अपने पास रखना चाहता था। उस समय उनके सम्‍पर्क में रहे लोग याद करते हैं कैसे बहुत से पाठक सिर्फ उनका संपादकीय पढ़ने के लिए ही यह अखबार खरीदते थे और कैसे कुछ संपादकीयों को क्षेत्र में उनके प्रशंसक दुकानदार काटकर फ्रेम में जड़वाकर दुकान में लटकाते थे, ताकि वहां आने वाले ग्राहक भी उन्‍हें पढ़ सकें।

नवोदितों के पथदर्शक-संरक्षक

नैयर जी नये पत्रकारों और लेखकों के लिए एक ऐसे घने वृक्ष की तरह थे, जिसकी छांह में आकर हर कोई अपनत्‍व, शांति और आश्‍वस्‍त‍ि का अनुभव करता था। उन्‍होंने अपने आधी सदी से भी ज्‍यादा लंबे पत्रकार जीवन में सैकड़ों नए-लेखकों को चमकने का अवसर दिया। न सिर्फ अवसर दिये, बल्कि समय-समय पर वह उनका आवश्‍यक मार्गदर्शन, सहयोग और यथासंभव आर्थिक मदद भी कर दिया करते थे। स्‍वभाव से बेहद विनम्र और अपनेपन से भरपूर नैयर जी सभी से बेहद प्रेम से मिलते थे। उनके व्‍यवहार में इतनी सहजता थी कि किसी नये व्‍यक्ति को भी कभी ऐसा महसूस नहीं होता था कि वह उनसे पहली बार मिल रहा है। 'पारस पत्‍थर' की उनकी यह भूमिका अखबारों तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि उनका सान्निध्‍य पाकर पत्रकारों को भी काफी कुछ जानने-सीखने को मिलता था, जो उन्‍हें करियर में आगे बढ़ने में मदद करता था।

पत्रकारिता को उनके योगदान के लिए उन्‍हें अनेक प्रति‍ष्ठित पुरस्‍कारों से नवाजा गया। इनमें 1984 में ऑल इंडिया आर्टिस्‍ट एसोसिएशन, शिमला की ओर से दिया जाने वाला 'विशेष पत्रकारिता सम्‍मान', 2001 का 'वसुंधरा सम्‍मान', 2012 में 'गणेश शंकर विद्यार्थी सम्‍मान', 2014 में बंगाली साहित्‍य परिषद, कोलकाता का 'स्‍वामी वि‍वेकानंद पत्रकार रत्‍न सारस्‍वत सम्‍मान', 2017 में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ द्वारा 'पत्रकारिता भूषण सम्मान' तथा वर्ष 2020 में कर्मवीर पत्रिका के प्रकाशन के 100 साल पूर्ण होने पर दिया गया 'कर्मवीर सम्मान प्रमुख' हैं। इसके अलावा प्लानमेन मीडिया हाउस ने भी उन्हें 'रत्न-छत्तीस' के गौरव से भी सम्मानित किया था। 29 नवंबर, 2022 को लंबी बीमारी के बाद रायपुर में उनका निधन हो गया। वह 82 वर्ष के थे। उनके निधन के बाद छत्तीसगढ़ राज्‍य सरकार ने रायपुर स्थित राजकुमार कॉलेज से प्रगति कॉलेज तिराहा (चौबे कॉलोनी) मार्ग को उनका नाम देने की घोषणा की है।

मेरे अभिभावक

नैयर जी की मेरे जीवन में बहुत खास जगह थी। वे मेरे लिए पितातुल्य तो थे ही, मेरे अभिभावक भी थे। उनकी प्रेरणा, प्रोत्साहन और संरक्षण ने मेरी जिंदगी की हर कठिनाई का अंत ही नहीं किया, वरन विजेता भी बनाया। आपकी जिंदगी में जब ऐसे स्नेही अभिभावक होते हैं, तो आपके लिए हर मंजिल आसान हो जाती है। वे मुझे बहुत उम्मीदों से देखते थे। उनके भरोसे को बचाए और बनाए रहने की मैं आज भी सतत कोशिशें करता हूं। उनका मार्गदर्शन और स्नेह पितृछाया की तरह था, जो आपको जीवन के झंझावातों से जूझने के लिए हौसला देता है। उनका पूरा जीवन त्यागमय, कर्ममय एवं तप:पूत रहा। उनका बोलना, उनका बर्ताव, उनकी नेतृत्व शक्ति, सबको साथ लेकर चलने की वृत्ति और उनकी अप्रतिम विद्वता से हम सभी परिचित हैं। मुझे लगता है कि वे इतने श्रेष्ठ थे कि बड़े बड़ों को भी उनका ठीक प्रकार से मूल्यांकन करने में कठिनाई होती थी। उनका ध्येयमयी जीवन हम सबके लिए एक ऐसा पथ है, जो जीवन को अनंत ऊंचाइयों की ओर ले जाने में समर्थ है।

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