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लक्ष्मण मंदिर, सिरपुर, छत्तीसगढ़ : प्रेम का अद्भुत तोहफ़ा जिसे बनवाकर रानी वासटा ने पूरी की अपने दिवंगत पति राजा हर्ष गुप्त की इच्छा...

लक्ष्मण मंदिर, सिरपुर, छत्तीसगढ़ : प्रेम का अद्भुत तोहफ़ा जिसे बनवाकर रानी वासटा ने पूरी की अपने दिवंगत पति राजा हर्ष गुप्त की इच्छा...

लक्ष्मण मंदिर, सिरपुर, छत्तीसगढ़ : प्रेम का अद्भुत तोहफ़ा जिसे बनवाकर रानी वासटा ने पूरी की अपने दिवंगत पति राजा हर्ष गुप्त की इच्छा...
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सिरपुर लक्ष्मण मंदिर छत्तीसगढ़

By NPG News

दिव्या सिंह

एक स्त्री का प्रेम होता है मौन और सरल होता है उसका प्रकटीकरण। उसके स्पर्श की तरह कोमल होते हैं उसके भाव लेकिन उसे आता है प्रियवर से किए वादे को निभाने के लिए पत्थर की तरह दृढ़ हो जाना,प्रेम को अमर कर जाना... श्रीपुर(सिरपुर) की रानी वासटा देवी के अपने पति हर्ष गुप्त के प्रति ऐसे ही उत्कट प्रेम का परिचायक है "लक्षमण मंदिर"। प्रेम का रंग आज लाल कहलाता है न! तो अनजाने में ही सही उस दौर में भी लाल रंग की ही ईंटों से बना है लक्ष्मण मंदिर, जिसने भूंकप झेले और बाढ़ भी लेकिन ध्वस्त नहीं हुआ... 1600 साल बाद भी खड़ा है वासटा देवी के प्रेम की तरह अटल। शायद प्रकृति भी प्रेम का यह संदेश पीढ़ियों तक पहुंचते देखना चाहती थी।

साथ छूटे तो प्रेम भी लुप्त हो जाता है क्या?नहीं न!

प्रेम साथ छूटने से कभी लुप्त नहीं होता। वह तो बना ही रहता है, मौन, आत्मिक और विशुद्ध...। रानी वासटा ने भी प्रेम किया। प्रेम को जिया। विवाह के उपरांत! हमारे यहां तो विवाह को प्रेम का प्रथम सोपान माना ही जाता रहा है। वासटा देवी का प्रेम भी ऐसा ही था। जो क्रमशः बढ़ा और कल्पनातीत हो गया। नियति में तय कर रखा था कि इस प्रेम की उम्र लंबी नहीं होगी इसलिए उसने हर्ष गुप्त के प्राण जल्दी हर लिए लेकिन वासटा देवी ने पति के साथ प्रेम का दामन थाम रखा। उनके जाने बाद वे बिल्कुल मौन हो गई लेकिन मज़बूत भी। और गढ़ गईं प्रेम की निशानी... लक्ष्मण मंदिर ।

कहीं राजगुरु ने पढ़ तो नहीं लिया था भविष्य... ?

ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि वासटा देवी मगध की राजकुमारी और नरेश सूर्य वर्मा की पुत्री थीं। सूर्य वर्मा की प्रबल इच्छा थी कि उनकी पुत्री का विवाह श्रीपुर के सोमवंशी शासक हर्ष गुप्त से हो। राजगुरु से जब उन्होंने इस पर मशविरा किया तो वे थोड़े चिंतित हो गए। क्या यह संभव है कि उन्होंने वासटा देवी का भविष्य पढ़ लिया हो? हो भी सकता है। प्रकट में उन्होंने सिर्फ यही कहा कि आप वैष्णव मत को मानते हैं और राजा हर्ष गुप्त शैव मतावलंबी हैं तो कुछ व्यवहारिक दिक्कतें आ सकती हैं। लेकिन पिता की इच्छा का मान रखते हुए वासटा देवी ने किसी भी अन्य पहलु पर ध्यान न देते हुए हर्ष गुप्त से ही विवाह करने पर सहमति जताई।

वासटा देवी- हर्ष गुप्त के प्रेम की मिसाल देते थे लोग

वासटा देवी जितनी रूपवती थीं, उतनी ही ज्ञानवान भी थीं। उनके सद्व्यवहार,हर्ष गुप्त और उनकी आपसी समझ और प्रेम की चर्चा राज्य में सर्वत्र हुआ करती थी।

बताते हैं कि एक एकांतिक पल में राजा हर्ष गुप्त ने अपनी पत्नी से एक खास तरह का मंदिर बनवाने के विषय पर चर्चा की।दरअसल शैव मतावलंबी हर्ष अपनी वैष्णव मतावलंबी पत्नी से अत्यधिक प्रेम करते थे। शायद इसलिए वे ऐसा खास मंदिर बनवाना चाहते होंगे।

कुछ समय बाद ही एक दिन अचानक हर्ष गुप्त की मृत्यु हो गई। रानी वासटा अकेली और निस्तेज हो गईं। वे अपना अधिकतर समय एकांत में बिताने लगीं। लेकिन फिर एक दिन उन्होंने अपने पति की इच्छा पूरी करने का संकल्प लिया।

ढूंढे नहीं मिल रहे थे ईंट का मंदिर बनाने वाले शिल्पकार

रानी वसाटा ने अपने चारों तरफ से ऐसे शिल्पकार बुलवाए जिनकी कलाकारी की प्रशंसा हुआ करती थी। लेकिन सभी ने इस संभावना से इन्कार कर दिया कि लाल ईंटों से रानी की इच्छानुसार नक्काशीदार और मजबूत मंदिर बन सकता है। वासटा देवी स्वयं भी शिल्प कला में पारंगत थीं और उन्हें भरोसा था कि ऐसा निर्माण संभव है। कुछ समय बाद रानी को एक वयोवृद्ध शिल्पकार 'कैदार' के बारे में पता चला। उन्होंने केदार के समक्ष अपने पति के स्वप्न को साकार करने की इच्छा ज़हिर की। इसी शिल्पकार के मार्गदर्शन में 'लक्ष्मण मंदिर' बनकर तैयार हुआ।

इस ' प्राकृतिक पेस्ट' से बना मंदिर मजबूत

आमतौर पर नक्काशीदार मंदिर पत्थरों से निर्मित होते हैं क्योंकि पत्थर पर नक्काशी करना आसान होता है। लेकिन वसाटा देवी लाल ईंटों से ही मंदिर बनवाने पर अडिग थीं। ऐसे में शिल्पकारों ने तय किया कि इन ईंटों के बीच में गैप बिलकुल भी नहीं छोड़ना है। मज़बूती देने के लिए ईंटों को एक विशेष पेस्ट से जोड़ा गया। यह पेस्ट उड़द दाल, बबूल का गोंद, चूना, गुड़ और जंगली जड़ी-बूटियों को मिक्स कर बनाया गया था। इसी पेस्ट ने ईंटों के मंदिर को ऐसी मज़बूती दी कि यह तमाम प्राकृतिक आपदाओं को झेलने के बावजूद आज भी दर्शकों के लिए उपलब्ध है।

उत्कृष्ट शिल्पकला का उदाहरण है लक्ष्मण मंदिर

लक्ष्मण मन्दिर के मंडप के मलबे से प्राप्त शिलालेख से स्प्ष्ट है कि इस मंदिर का निर्माण महाशिवगुप्त बालार्जुन के काल में हुआ। उनकी माता वासटा देवी ने अपने पति हर्षगुप्त की पुण्य स्मृति में इस मंदिर का निर्माण(625 से 640 ई. के बीच संभवतया) करवाया। लाल ईंटों पर जिस नफ़ासत और बारीकी से नक्काशी की गई है, वह इस मंदिर को अनोखा बनाती है। नागर शैली में बने इस मंदिर का हर कोना सुंदर है फिर चाहे वह प्रवेश द्वार हो, मंडप हो या गर्भगृह। ईंटों पर हाथी, सिंह, पशु-पक्षी और कामुक मूर्तियां उत्कीर्ण की गई हैं।

मंदिर के तोरण के ऊपर शेषशैय्या पर लेटे भगवान विष्णु की अद्भुत प्रतिमा है। इस प्रतिमा की नाभि से ब्रह्मा जी के उद्भव को दिखाया गया है और साथ ही भगवान विष्णु के चरणों में माता लक्ष्मी विराजमान हैं। इसके साथ ही मंदिर में भगवान विष्णु के दशावतारों को चित्रित किया गया है। हालाँकि यह मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित माना जाता है लेकिन यहाँ मंदिर के गर्भगृह में पांच फनों वाले शेषनाग पर लक्ष्मण जी की प्रतिमा विराजमान है। इसलिए इसे लक्ष्मण मंदिर के नाम से पुकारा जाने लगा।

कृतज्ञ रानी ने शिल्पकार के नाम को भी अमर किया

केदार नाम के जिस मुख्य कारीगर ने इस मंदिर को बनवाया, उसके नाम का उल्लेख भी शिलालेख में किया गया है। यह तथ्य इसलिए खास है क्योंकि सामान्यतः अभिलेखों में मंदिर निर्माता कारीगर का उल्लेख नही मिलता। निस्संदेह रानी वासटा अपने पति के स्वप्न को साकार करने पर शिल्पकार के प्रति कृतज्ञ हुईं और उसके नाम का उल्लेख शिलालेख में करवाया।

हम सब ने राजा-रानी के बहुत सी कहानियां सुनी होती हैं लेकिन इस अमर प्रेम कथा का असल उदाहरण हम अपनी आंखों से देख भी सकते हैं और उनके प्रगाढ़ प्रेम को महसूस भी कर सकते हैं। इसे प्रेम का प्रतीक 'लाल ताजमहल' कहकर भी पुकारा जाता है लेकिन हकीकत यह है कि यह ताजमहल से सैकड़ों साल पुराना है। हो सकता है प्रेम को स्मारक का रूप देने की प्रेरणा शाहजहां को यहीं से मिली हो।

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