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Guru Purnima-2022: मानवीय मूल्यों का अगर हमने त्याग कर दिया तो फिर मनुष्य और जानवर में कोई फर्क नहीं, आचरण ठीक नहीं होने से आदमी जितना उपर उठना चाहता हैं, उतना नीचे गिरते जा रहा-बाबा संभव राम

Guru Purnima-2022: मानवीय मूल्यों का अगर हमने त्याग कर दिया तो फिर मनुष्य और जानवर में कोई फर्क नहीं, आचरण ठीक नहीं होने से आदमी जितना उपर उठना चाहता हैं, उतना नीचे गिरते जा रहा-बाबा संभव राम
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By NPG News

Guru Purnima-2022: "बाबा बाबा सब कहे माई कहे न कोय, बाबा के दरबार में माई करे सो होय"। हम सबको उपलब्ध वह प्राणमयी भगवती जो चाहती हैं वही होता है। वह देती हैं, दिलाती हैं और दिए-दिलाये को छीन भी लेती हैं और जब चाहती हैं तो पुनः वापस दे देती हैं। तो हमारे कर्म ऐसे हों कि वह हमें देने के लिए बाध्य हों। यदि हम माँ की शरण में जाते हैं और तदनुरूप हमारा आचरण-व्यवहार, श्रद्धा-विश्वास उनमें रहेगा तो वह ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी बाध्य होकर हमें ढूंढ़कर सब कुछ उपलब्ध कराएँगे।

वाराणसी। गुरू पूर्णिमा के समापन कार्यक्रम में सर्वेश्वरी समूह के अध्यक्ष परमपूज्य बाबा औघड़ गुरुपद संभव राम जी ने अपने आशीर्वचन में कहा-अपने आश्रमों और महापुरुषों से मिली सीख को अपनाकर हमलोग अपना भविष्य स्वयं ही तय करते हैं। यदि मस्तिष्क का संतुलन नहीं बना रहेगा तो हमलोग बहुत जल्दी दिग्भ्रमित हो जायेंगे। दिग्भ्रमित होने पर हम कोई भी अकरणीय कार्य करने से नहीं हिचकेंगे। जब सभी मानवीय मूल्यों का हम त्याग कर देंगे तो हममें और जानवरों में कोई फर्क नहीं रहेगा। यदि हमारे कर्म इसी तरह के रहे तो यह निश्चित है कि हमें मिले इन दो हाथों की जगह दो पैर और मिल जाय। हमारे शास्त्र और महापुरुष यही कहते हैं कि यह दुर्लभ मानव जीवन कई जन्मों के सद्कर्मों के फलस्वरूप आवागमन से मुक्ति के लिए मिलता है। अपने लगन, आस्था और अटल विश्वास से हम बहुत सी चीजों को प्राप्त कर सकते हैं। कहा गया है-"बाबा बाबा सब कहे माई कहे न कोय, बाबा के दरबार में माई करे सो होय"। हम सबको उपलब्ध वह प्राणमयी भगवती जो चाहती हैं वही होता है। वह देती हैं, दिलाती हैं और दिए-दिलाये को छीन भी लेती हैं और जब चाहती हैं तो पुनः वापस दे देती हैं। तो हमारे कर्म ऐसे हों कि वह हमें देने के लिए बाध्य हों। यदि हम माँ की शरण में जाते हैं और तदनुरूप हमारा आचरण-व्यवहार, श्रद्धा-विश्वास उनमें रहेगा तो वह ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी बाध्य होकर हमें ढूंढ़कर सब कुछ उपलब्ध कराएँगे। उसके लिए हमें स्वयं वैसे गुणों की खान होना होगा। लेकिन आजकल हममें इस भाव का ही अभाव हो गया है जिसके चलते हमलोग अपने जीवन में जितना आगे बढ़ना चाहते हैं, जितना ऊपर उठना चाहते हैं उतना ही पीछे और नीचे गिरते चले जाते हैं। कहा भी गया है- भावये विद्यते देवः। तो हमारी भावना जब शुद्ध रहेगी, बुद्ध रहेगी, हममें निश्छलता होगी, नीरवता होगी, तभी ईश्वर के प्रति हमारी श्रद्धा, हमारी प्रार्थना हमें सच्ची शांति और सुख की अनुभूति करा सकती है। जब हम ऐसे स्थानों पर महापुरुषों के पास जायँ तो अपने-आप को एकदम खाली करके बैठें, किसी तरह के बाहरी विचारों को अपने अन्दर न आने दें तो हममें नयी-नयी प्रेरणायें उत्पन्न होंगी, अच्छे विचार और भावनाएँ हमें मिलेंगी जिससे हमारा ज्ञानवर्धन होगा। आजकल विशेषकर माताओं को या लोगों को देखता हूँ कि वह अपनी संतति को लेकर चिंतित हैं और हमारे पास भी आकर रोते-बिलखते हैं। बंधुओं! यदि हम पहले ही जागृत हो जायँ अपने संस्कारों को लेकर, अपनी संस्कृति को लेकर, तो हमें किसी के सामने रोना-बिलखना नहीं पड़ेगा। शुरू से ही यदि हम अपनी आने वाली पीढ़ी पर ध्यान देंगे तो न हमें वैसा झेलना पड़ेगा न अपने समाज और राष्ट्र को ही किसी तरह की परेशानी का सामना करना पड़ेगा। आज का समय ऐसा है कि हर व्यक्ति अपनी नासमझी के कारण देश और समाज को ही लूटने-ठगने में लगा हुआ है। संगत का भी असर होता है, माहौल का भी असर होता है। कुसंग का प्रभाव तत्काल हम पर पड़ता है। इसीलिए हमें सत्संग करना चाहिए। कोई न मिले तो स्वयं से भी हम सत्संग में रह सकते हैं। हम ईश्वर निहित ऐश्वर्य की कामना करें। क्योंकि ईश्वर निहित ऐश्वर्य मूल्यवान होने के साथ ही लगावमुक्त होता है और वह स्वतः ही हमें मिलता है, उसको छीनना, झपटना या चुराना नहीं पड़ता है। लोलुपता और लगाव रहित हो अपने कर्तव्य की भावना से कार्य करना चाहिए। फर्ज और मर्ज की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। बिना मोह-माया में लिप्त हुए भी अपने अधिकार और कर्तव्य को पूर्ण किया जा सकता है। जो केवल मोह में लिप्त रहेंगे उनका रोना-धोना तो लगा ही रहेगा। जिस भी चीज में हम अत्यधिक मोह रखेंगे तो वह हमारे दुखों का एक कारण ही होगा। ईश्वर ने हमें यह मनुष्य शरीर देकर इसके साथ दो हाथ, दो पैर, आँख, नाक, कान के साथ बुद्धि और विवेक भी दिया है। इसलिए हमें अधिक दैववादी भी नहीं होना है। हम अपने पौरुष पर, अपने इष्ट पर, अपने प्राणमयी माँ पर अवश्य ही भरोसा करें। अत्यधिक गर्मी और कोविड जैसी बीमारियों के कारण हमलोगों ने बहुत लोगों को यहाँ पर एकत्रित होने या भीड़ लगाने से मना किया था, क्योंकि महिलाएं, बच्चे, बूढ़े सब परेशान हो सकते हैं। जो आ गए हैं उनको भी साधुवाद है और जो बात मानकर नहीं आये हैं, अपने स्थानों पर ही रुक गए हैं उनका भी बहुत बड़ा सहयोग है, उनको भी साधुवाद है। क्योंकि देखा भी जाता है कि जो हमारे बहुत करीब हैं वह बहुत दूर हैं और जो बहुत दूर हैं, विदेशों में भी हैं वह हमारे बहुत करीब हैं। विपरीत परिस्थितियों में कार्य करने से हमारा पौरुष बढ़ता है हमारी क्षमता बढ़ती है। जैसे सैनिकों को पच्चास डिग्री से लेकर माईनस पचास तक में ट्रेनिंग देकर मजबूत बना दिया जाता है, जिससे वह हमारे देश के सीमाओं की और हमलोगों की रक्षा में अपने-आप को न्योछावर करने को तैयार रहते है। तो हमलोगों का भी उनके और उनके परिवारों के प्रति कुछ कर्तव्य बनता है। लेकिन हम तो अपने ही लोगों को मारने, काटने और लूटने में लगे हुए हैं। और देखने में यही आता है कि देश-समाज की रक्षा के लिए अपना बलिदान देने को तत्पर सैनिकों के परिवारजनों को भी कोई काम करवाने में उन्हीं सब दिक्कतों का सामना करना पड़ता है जो आम जनमानस को होता है। इसके लिए कड़ाई की जरुरत है। यदि हम दया दिखाते हैं तो बहुत बड़ा पाप करते हैं। हमें दया नहीं, न्याय करना होगा। दया से बढ़कर न्याय होता है। न्याय होने पर ही हम सब लोग भाईचारे के साथ, सुख-शांति के साथ रह सकेंगे। कहीं-कहीं कड़ाई हो भी रही है। अच्छा है, क्योंकि बिना भय के कोई ठीक से रहता नहीं। भय होने पर सबलोग स्वतः ठीक हो जाते हैं। कहा भी गया है- "जो पिंडे सो ब्रह्मांडे"। जब हमारे अन्दर इतना उथल-पुथल है, मानवता को विनाश के कगार पर ले जा रहे हैं, हर तरह के गलत कृत्य हो रहे हैं, तो प्रकृति भी कुपित होगी ही और ब्रह्माण्ड में भी वही घटित होगा। तो ईश्वर का या समय का दोष देने से कोई फायदा नहीं। "कालहिं कर्महिं ईश्वरहिं मिथ्या दोष लगाय, सर धुनी-धुनी पछताय"। यह सब हमारे ही कर्मों का फल है। ईश्वर तो महान प्रेम और दया का सागर है। लेकिन हम अपनी दुर्बुद्धि के चलते राक्षस हुए जा रहे हैं जो इस प्रकृति को, मनुष्य को नष्ट करने पर तुले हुए हैं। गुरु को एक शिष्य बनाने में एक हजार गाय मारने के बराबर पाप लगता है। तो शिष्य को भी चाहिए कि अपने आचरण-व्यवहार और कर्म से एक आदर्श उत्पन्न करे। हम एक अनुशासित जीवन जीने का संकल्प लेकर यहाँ से जायँ तो मुझे आशा है कि आपलोग अपनी सभी मानवीय कमजोरियों पर विजय प्राप्त करेंगे और अपने-आप की बहुत बलवान पायेंगे।

गुरुपूर्णिमा महोत्सव के अवसर पर अघोर पीठ, श्री सर्वेश्वरी समूह संस्थान देवस्थानम्, अवधूत भगवान राम कुष्ठ सेवा आश्रम में आयोजित तीन दिवसीय कार्यक्रम का समापन आश्रम के मुख्य सभागार में हुए महिला-युवा संगोष्ठी के साथ हुआ। गोष्ठी की अध्यक्षता जयपुर की श्रीमती शशि सिंह ने किया। वक्ताओं में रजा विजयगढ़ चन्द्र विक्रम शाह, संस्था के प्रचार मंत्री पारसनाथ यादव, कामोद यादव, सर्वेश शाहदेव, अजय सिन्हा, जशपुर राज परिवार की पुत्रवधू श्रीमती जाया सिंह जूदेव, कुमारी रिमझिम, श्रीमती अनूपा जी, श्रीमती किरण जी, कुमारी भैरवी तथा कुमारी कामिनी थीं। नचिकेता तथा कुमारी दामिनी और कुमारी राशि ने भजन प्रस्तुत किया। मंगलाचरण श्रीमती सुमन शाही ने किया। गोष्ठी का संचालन श्रीमती नीतू सिंह ने और धन्यवाद ज्ञापन संस्था के मंत्री डॉ० एसपी सिंह ने किया।

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