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विश्वेश की कविता संग्रहः ’पंखों पर लिखी आयतें’, सिर्फ कविताएं नहीं, हल्की स्याही से लिखे गहरे अहसास हैं

Vishvesh's poetry collection: जिंदगी की रोज की परेशानियां, प्रेम, रिश्ते, नजदीकियां, दूरियां, हंसी, आंसू, बेचैनी, सुकून, फूल, पत्ती और तितलियों के साथ सड़क, मिट्टी और पेड़ के मन की उलझनों का विश्वेश ने दिलखेज खाका बुना है। जान पड़ता है कि जैसे दुनियाभर की हलचलें उन्होंने खुद या बहुत नजदीक से महसूस की हैं।

विश्वेश की कविता संग्रहः ’पंखों पर लिखी आयतें’, सिर्फ कविताएं नहीं, हल्की स्याही से लिखे गहरे अहसास हैं
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By Sandeep Kumar Kadukar

-अनिल तिवारी

हृदय की भावनाओं को सुंदर शब्दों में आकार लिए ’पंखों पर लिखी आयतें’ हाथों में आई तो मैं पूरा का पूरा महक गया। पूरे 83 पन्ने के हर्फ हर्फ में बिखरी खुशबू मुझे हर बार एक अलग ही दुनिया में ले गई। जिंदगी की रोज की परेशानियां, प्रेम, रिश्ते, नजदीकियां, दूरियां, हंसी, आंसू, बेचैनी, सुकून, फूल, पत्ती और तितलियों के साथ सड़क, मिट्टी और पेड़ के मन की उलझनों का विश्वेश ने दिलखेज खाका बुना है। जान पड़ता है कि जैसे दुनियाभर की हलचलें उन्होंने खुद या बहुत नजदीक से महसूस की हैं। छोटी लेकिन गहरे अर्थ में रची-बसी कविताएं लफ्ज़ लफ्ज़ आपके भीतर उतर जाती हैं। काव्य संग्रह की पहली ही कविता ’अनपढ़’ आपको अपनी मोहपाश में बांध लेता है। कविता के खत्म होते ही एक भारी सांस उतरती है और अपने आप पन्ने पलटकर मैं दूसरी कविता में जज्ब हो जाता हूं। पन्ने पलटते जाते हैं। इन पन्नों के साथ विश्वेश की महसूस की हुई जिंदगी को उनके शब्दों के साथ जीते, महसूस करते चले जाते हैं। 83 पन्ने के संग्रह में कुल 44 कविताएं हैं। हर एक कविता अपने साथ प्रेम, पीड़ा, सुख, संघर्ष, खुशी, बाजारवाद, पर्यावरण, सामाजिक चिंताओं के साथ रिश्तों का ताना-बाना लिए जिंदगी के हर पहलू से साक्षात कराती पाठकों को अपने साथ लेकर चलती है। विश्वेश की बातें कहने के लिए ’दाई’ कई बार अलग-अलग कविताओं में प्रगट होती हैं।

’अनपढ़ है दाई

तो कैसे पढ़ लेती है सबका दुख

कैसे पढ़ लेती है सबकी जरुरतें’

संग्रह की कई कविताओं में रिश्ते-नातों की पोटली अपने पूरे सुगंध के साथ खुलती है। इन रिश्तों की महक में मां, बाबूजी जहां स्मृतियों से होते हुए हर संवेदना से एकाकार दिखाई देते हैं। वहीं बिटिया, प्रेमिका, पत्नी भी अपनी पूर्ण उपस्थिति लिए साथ कदमताल करती हैं। ’कचरा पेटी’ और ’बहुत दिन हो गए मां नहीं कहा’ पढ़ते हुए शब्द संवेदनाओं का ऐसा संसार रचते हैं कि अक्षर झिलमिला उठते हैं। टिश्यू पेपर या रुमाल के इस्तेमाल के बाद जो अल्फाज़ दिखते हैं, वे कुछ ऐसे हैं।

सब कहते हैं, तेरी आवाज में

अब वो मीठापन नहीं रहा

होठों पर मां जो नहीं रहा

बहुत दिन हो गए मां नहीं कहा...

मां, इस एक शब्द को सभी बातों का हल बताने वाले कवि ’मां’ शीर्षक से अगली तीन कविताओं में वो लिख जाते हैं, जिसे मैं पूरी जिम्मेदारी से यहां लिख रहा हूं कि संवेदनाओं के स्तर पर वे खुद को मुनव्वर राना, निदा साहब या मौजूदा मशहूर शायर आलोक श्रीवास्तव के बराबर खड़ा कर देते हैं। एक बानगी देखिए।

पूजाघर में रखी रेशमी कपड़ों में लिपटी गीता है,

पिताजी के साथ हर वनवास पर उनके साथ चलती सीता है

काव्य संग्रह में विश्वेश ने मां, पिता और बेटी पर सबसे ज्यादा और बिल्कुल उसी नफासत से लिखा है, जैसे तितली के पंखों पर आयतें लिखी हों। इन रेशम से महीन रिश्तों में दूरियां, नजदीकियां, हंसी, आंसू, बेचैनी, सुकून, अमानत और सपना को उन्होंने बेहतरीन शब्द दिए हैं। ’पिता’ शीर्षक कविता में जहां वो बेटी के लिए पिता होने को बारिश जैसा होना बताते हैं, वहीं ’बेटियां’ कविता की शुरुआत में ही अपने विचारों की नींव रख देते हैं कि ’वो पहला कदम रखते ही घर की नींव बन जाती हैं’।

’क्योंकि, बेटियां बचपन से

सहेजती आई हैं रेत के घरौंदे’

ईश्वर की बनाई इस दुनिया से दूर ईश्वर के साथ रह रहे आई और बाबा के लिए समर्पित विश्वेश का ये संग्रह पिता और मां की बात-बात करते-करते और याद करते-करते और भी ज्यादा मासूम हो जाता है। बेटी के संदर्भ में पिता का जिक्र होता है, तो विश्वेश और भी ज्यादा कोमल हो जाते हैं। क्योंकि वे खुद एक बड़ी बेटी के पिता हैं, तो लिख जाते हैं- ’कुछ कुछ बारिश जैसा ही होता है पिता होना’। साथ ही ये भी ’क्योंकि, बेटियां बचपन से सहेजती आई हैं रेत के घरौंदे’। अपनी कविताओं में कवि कभी साथ-साथ चलता हुआ साकार महसूस होता है, तो कभी-कभी उसकी स्मृतियां जीवन का संबल बनकर हमें शब्दों से सींचती हैं।

’तितलियां आती थीं आंगन में

एक के मखमली पंखों पर बिखरी रहती थी चांदनी

जैसे आसमान से टूटे तारों को समेट लिया हो उसने

एक के पंखों पर कुछ आयतें सी लिखी दिखाई देती थीं

मां कहती थीं, खुदा ने खुद लिख भेजी हैं इनायतें’

’उसने नहीं देखी है नदी’ शीर्षक कविता में बेटी की ओर से ’पापा, कितने बॉटल पानी से बन जाएगी नदी’ जैसा मासूम सवाल लिखते हुए और ’मिट्टी का मन’ शीर्षक कविता में ’अफसोस कि नहीं है मिट्टी का मन’ कहते हुए विश्वेश पूरी संवेदना, प्रेम, करुणा, स्नेह, दया, विनम्रता, संघर्ष, समर्पण और दृष्टि उड़ेल देते हैं। चिंतन कवि के जीवन को सार्थकता प्रदान करता है और जीवन धन्य हो उठता है। जीवन के रूखे मौसमों में प्रेम और सम्मान की नमी को संजोये रखने और जिजीविषा बनाए रखने के संदेश से लैस उनकी कविताएं प्रेम के नए मानी बताकर जीवन का नया पाठ पढ़ाते हैं।

प्रेम बहुत गर्म होता है

इतना कि उसे छूने के लिए ठंडे करने होते हैं हाथ

भीगना होता है बार-बार आंसुओं की धार में

ठिठुरना होता है किसी सर्द निगाहों में

विश्वेश के लिए कविता बचपन को मिठास के साथ याद करने का एक बहाना है। वे फूल, पत्तियों और पेड़ों के माध्यम से अपनी भावनाएं व्यक्त करने में माहिर हैं। उनकी कविताओं में सबसे ज्यादा प्रकृति का जिक्र मिलता है। संग्रह की हर चौथी कविता में वे अपनी बात कहने के लिए पेड़ को माध्यम बनाते हैं। ’आंगन में झुरमुट है फूलों का’ में वे रंगबिरंगी क्लिप के झुंड और साड़ी पर छितरे फूलों जैसा बिंब रचते हैं।

हमारी खुशियों को सींचने हमेशा बहती नदी है,

प्यार की, स्नेह की, ममता की एक पूरी सदी है

’भूख और कुल्हाड़ी’, ’पेड़ों की चिट्ठियां’ और ’मर रही है छांव’ में तरक्की की तस्वीर पेश करते हुए वे मीठे इमली और जटाओं वाले बरगद को याद करते हैं। ’एक पेड़ था नीम का’ में वे लिखते हैं- ’दिखती नहीं थी लेकिन, पेड़ के गिरने से पड़ गई थीं दरारें, वो सिर्फ एक पेड़ नहीं था नीम का’। ’फोरलेन’ शीर्षक से लिखी दो कविताएं भी दरख्तों के दुख बयां करते हैं। ’इंद्रधनुष’ शीर्षक की तीन कविताओं में प्रकृति का सौंदर्य, मिट्टी की खुशबू, बारिश, बूंद, हवा, आंगन, धूप जिंदगी के सारे धूप-छांव की कहानी कहते हैं। वहीं ’पलाश’ में संघर्ष में मुस्कुराने की सीख देते हुए लिख जाते हैं- ’आओ पलाश से सीखें, जीवन के सबसे कठिन समय में खिलखिला जाना’। इस संग्रह की अंतिम कविता है ’एक सड़क का विधवा होना’। बिलासपुर के बेटे विश्वेश ने लिंकरोड के ’हरी चुनरी ओढ़े दुल्हन सी सड़क’ के विधवा होने का दर्द हर बिलासपुरिया के दिल की बात लिखी है।

रात होते ही एलईडी लाइट से

जगमगा जाती है लिंक रोड

दूर तक दिखाई देती है सफेद

ऐसे जैसे किसी विधवा ने

सिर पर डाल लिया हो पल्ला...

विश्वेश की कविताएं पढ़ते हुए पिछले समय में लौटना जहां हमारी आंखें नम करता है। वहीं कई जगह हमें आश्चर्य और खुशी से भी सराबोर कर देता है। कविता में कई पक्ष संग लिए कवि उस घटना को याद करता है जो उसके मानसपटल पर हमेशा के लिए अंकित हो चुकी है। कवि अपने भीतर न जाने कितनी ही संवेदनाओं की बाढ़ समेटे हुए है। ’अनहद’ शीर्षक कविता की ये आखिरी पंक्ति देखिए।

जो नहीं है, वो सबका हो जाता है

तुम नहीं हो, तो हर कहीं हो

हो सकता है, यहीं कहीं हो...

अपनी कविताओं में विश्वेश वर्गीय विभाजन की दहलीज के बाहर बार-बार पैर रखते हैं। वे स्त्री के प्रति घनीभूत संवेदना के कवि होकर एकल पहचान के दायरे को तोड़ते नजर आते हैं। इसे उनकी कविताओं में भीतर तक महसूस किया जा सकता है। ’ऐ चांद सुन’ में चांद में चरखा कात रही बुढ़िया से झीने होते रिश्ते, उधड़ते प्रेम, बिखरता धैर्य बांधने के लिए वे धागे मांगते हैं। उन्होंने उन सारे विषय को अपनी कविताओं में सहेजा है, जिनकी वजह से इंसान अपनी जमीन से छिटक रहा है। अपनी जमीन से यह छिटकन एक परंपरा, एक संस्कृति, एक समाज, एक अटूट रिश्ते व कई संवेदनाओं के बिखराव के घाव के गवाह बनती है, जो कभी भरे नहीं जा सकते।

अहसास बाहर निकलकर मुस्कुराने का

गर्मजोशी से किसी से हाथ मिलाने का

जोर से भींचकर किसी को गले लगान का

बस, बचा रहे ये अहसास

क्योंकि इसी अहसास से बची रहेगी जिंदगी

कुछ कविताएं कवि के पत्रकार होने को बयां करती हैं। रिश्तों के ताने-बाने के बीच, प्रकृति के सौंदर्य वर्णन से घिरकर और प्रेम की उर्वरा भाव भूमि पर लिखते हुए उनका एक सामाजिक चिंतक और सुधारक का रूप भी दिखता है। ’गुब्बारे वाला’, ’पुरातत्ववेत्ता’, ’मजदूर’ और ’राजतंत्र सावधान’ जैसी कविताओं के जरिये वे हाशिये पर और जिंदगी के निचले पायदान के लोगों के लिए संवेदना के साथ संजीदा नजर आते हैं। हर कविता की आखिरी पंक्ति आपको असलियत के पत्थर पर लाकर पटक देती है। झिंझोड़ देती है।

वह उगता है वजूद में

बिल्कुल वैसे ही जैसे चट्टानों की दरारों पर

उग आती हैं डालियां

और फिर खिल जाते हैं उनमें फूल

गांव और शहर से देश-विदेश में कमाने निकले लोगों के बिछोह, मिलन और फिर बिछोह की चक्करघिन्नी में घूमते परिवार की मार्मिक कथा को विश्वेश ने कविता ‘बच्चे बड़े हो गए हैं’ में संवेदनात्मक तरीके से जोड़ा है। ’खरपतवार’, ’हम लौट रहे हैं’, ’कर्फ्यू के बाद’, ’छिपकली’ और ’च्यूइंगम’ जैसी कविता बताती है कि कैसे समय के साथ और विकास के साथ व्यक्ति का आचार-व्यवहार और संवेदनाओं का कमतर होना स्वभाविक और बोरिंग सा हो गया है। बाजारवाद के आकर्षण से कोई अछूता नहीं रह गया है। कविता ‘बोरकूट’ इसी की कहानी सुनाती है। ‘राजतंत्र सावधान’ हमारे राजनीतिक और सरकारी तंत्र की पोल खोलती ये अपने भीतर एक बड़ी त्रासदी व चुनौतियों को छुपाए हुए है। ’सिग्नल पर खड़े बच्चे’ शीर्षक कविता के जरिये कवि हर रोज सिग्नल में खड़े होने वाले बच्चों के हालात, संघर्ष, पीड़ाओं को आत्मसात करते हुए उनकी आदत, उसकी थकान, चोट और चुभन को शब्द देते हैं। कवि डरते हुए आखिरी पंक्ति में त्रासद, भविष्य रहित बच्चों का सच बेपर्दा करते हैं कि

रोज रात बहुत बड़े हो जाते हैं

सिग्नल पर खड़े बच्चे...

विश्वेश के अहसास जब अल्फाज बनकर कागज पर उतरते हैं, तो उन्हें हिंदी के संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग करने में कोई हिचकिचाहट नहीं होती। न ही उनकी कलम ठेठ उर्दू के इस्तेमाल में किसी तरह का संकोच करती है। खुद को अभिव्यक्त करने के लिए उन्होंने जिस शब्द को उचित और उपयुक्त समझा, उसका प्रयोग किया है। यही वजह है कि इस संग्रह को प्राणवान बनाने के लिए भाषा एक औजार की तरह इस्तेमाल हुई है। मुझे यकीन है कि ’पंखों पर लिखी आयतें’ जब भी कोई पढ़ेगा, उसे एक नई रोशनी मिलेगी और उम्मीद की एक नई किरण उसके दरवाजे पर दस्तक देगी। सपनों की दुनिया से जुदा सच के करीब कविताओं को पढ़ते हुए नई और बेहतर दुनिया का सपना और अधिक संभव होने के करीब महसूस होता है। विश्वेश को उनके इस सुंदर संग्रह की बधाई।

’पंखों पर लिखी आयतें’ इस वक्त मेरे हाथ में है। जैसा खुद संग्रह की शुरुआत में कवि ने अपनी बात में लिखा है। मुझे यकीन है कि विश्वेश इस वक्त खाली नहीं होगा। वो भर रहा होगा। फिर से अपनी रचना कर्म से मुझे, हमें फिर से चमत्कृत करने के लिए। हम इंतजार करेंगे।

Sandeep Kumar Kadukar

संदीप कुमार कडुकार: रायपुर के छत्तीसगढ़ कॉलेज से बीकॉम और पंडित रवि शंकर शुक्ल यूनिवर्सिटी से MA पॉलिटिकल साइंस में पीजी करने के बाद पत्रकारिता को पेशा बनाया। मूलतः रायपुर के रहने वाले हैं। पिछले 10 सालों से विभिन्न रीजनल चैनल में काम करने के बाद पिछले सात सालों से NPG.NEWS में रिपोर्टिंग कर रहे हैं।

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