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Supreme Court News: जिला जजों की सीधी भर्ती, सुप्रीम कोर्ट ने स्पेशल कोटा देने से किया इंकार

Supreme Court News: सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए कहा है कि जिला जजों के पदों पर की सीधी भर्ती के लिए निर्धारित 25 प्रतिशत का कोटा केवल वकीलों को बार कोटे के तहत नहीं दिया जा सकता।

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By Radhakishan Sharma

Supreme Court News: सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए कहा है कि जिला जजों के पदों पर की सीधी भर्ती के लिए निर्धारित 25 प्रतिशत का कोटा केवल वकीलों को बार कोटे के तहत नहीं दिया जा सकता। संविधान पीठ का कहना है कि यह कोटा केवल वकीलों के लिए आरक्षित नहीं है।

चीफ़ जस्टिस बीआर. गवई, जस्टिस एमएम सुंदरेश, जस्टिस अरविंद कुमार, जस्टिस एससी. शर्मा और जस्टिस के. विनोद चंद्रन की खंडपीठ ने अपने फैसले में कहा, हम प्रतिवादियों की इस दलील से सहमत नहीं हैं कि 25% सीधी भर्ती का कोटा केवल प्रैक्टिसनर अधिवक्ताओं के लिए आरक्षित रहेगा। खंडपीठ ने कहा कि यदि इस तर्क को स्वीकार किया जाए तो यह सात वर्ष की प्रैक्टिस वाले अधिवक्ताओं के लिए एक अलग 'कोटा' बना देगा। पीठ का कहना है कि अनुच्छेद 233(2) का स्पष्ट और शाब्दिक अर्थ ऐसी व्यवस्था का समर्थन नहीं करता। लिहाजा यह तर्क स्वीकार्य नहीं है।

खंडपीठ ने तय व्यवस्था का हवाला देते हुए कहा, कोई न्यायिक अधिकारी, जिसने बार में सात वर्ष की प्रैक्टिस पूरी कर ली हो या वकील और न्यायिक अधिकारी के रूप में कुल सात वर्ष का संयुक्त अनुभव रखता हो, उसे बार कोटे के अंतर्गत जिला न्यायाधीश पद पर नियुक्ति के लिए पात्र माना जाएगा। सुनवाई के दौरान प्रतिवादियों ने तर्क दिया था कि ऑल इंडिया जजेस एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2002) मामले में दिए गए निर्देशों के अनुसार 75:25 का अनुपात तय किया गया था। जिसमें 75% पद प्रमोशन से और 25% पद सीधी भर्ती से भरे जाने थे। और यह पद 25% केवल योग्य वकीलों के लिए था।

संविधान पीठ ने दी यह व्यवस्था

संविधान पीठ ने स्पष्ट किया कि सात वर्ष या उससे अधिक का संयुक्त अनुभव रखने वाले वर्तमान न्यायिक अधिकारी भी जिला जजों की सीधी भर्ती की परीक्षा में भाग लेने के पात्र हैं। खंडपीठ ने कहा कि सात वर्ष की प्रैक्टिस वाले अधिवक्ताओं के लिए जिला न्यायाधीशों की सीधी भर्ती में अलग “कोटा” बनाना संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 का उल्लंघन होगा। कोर्ट ने सत्य नारायण सिंह बनाम इलाहाबाद हाईकोर्ट (1985) के फैसले को इस हद तक अस्वीकार कर दिया।

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