रायपुर। उसने कभी बीजेपी दफ्तर की चौखट नहीं देखी थी। उसने आरएसएस की कोई शाखा कभी नहीं देखी। उसने कभी पार्टी का झंडा भी नहीं उठाया। लेकिन उसके आंसुओं को पोंछने केसरिया झंडा आया। फिर उसके गले में बीजेपी का ध्वज लिपट गया। उसके दुख, दर्द और आंसुओं की ताकत से वोटों का ऐसा सैलाब उमड़ा कि तीन दशक से कांग्रेस का सबसे मजबूत गढ़ रहा किला ध्वस्त हो गया।
जी हां, हम उसी साजा विधानसभा सीट की बात कर रहे हैं, जो छत्तीसगढ़ के इस विधानसभा चुनाव का सबसे हाईप्रोफाइल सीट बन गया था। इस सीट पर पूरे देश की नजर थी। क्योंकि यहां सात बार के विधायक और कांग्रेस सरकार के सबसे कद्दावर मंत्री रविंद्र चौबे के खिलाफ बीजेपी ने बिरनपुर हिंसा के शिकार हुए भुवनेश्वर साहू के पिता को मैदान में उतारा था। ईश्वर साहू ने इस चुनाव से पहले कोई भी चुनाव नहीं लड़ा था। ईश्वर साहू सिर्फ एक प्रत्याशी नहीं, बल्कि न्याय की लड़ाई का प्रतीक बन गए।
जनता ने उन्हें सिर-आंखों पर बिठाकर मंत्री रविंद्र चौबे को धूल चटा दी। सांप्रदायिक दंगे के बाद ईश्वर साहू और उसके परिवार से मिलने सरकार का कोई मंत्री नहीं पहुंचा था। इसे भाजपा ने तभी मुद्दा बनाया। सरकार ने ईश्वर साहू के परिवार को मुआवजे के रुप में 10 लाख रुपए और सरकारी नौकरी देने की पेशकश की। लेकिन उन्होंने इसे ठुकरा दिया। भीतर ही भीतर ये आग सुलग रही थी, लेकिन कांग्रेस इसे भांप ही नहीं पाई। भाजपा इस गुस्से को ईश्वर साहू को मैदान में उतारकर कैश करने में कामयाब हो गई। साजा विधानसभा में ईश्वर साहू को भाजपा ने उम्मीदवार बनाया।
चुनाव प्रचार के दौरान गृहमंत्री अमित शाह ने साजा में घोषणा की थी कि अगर भाजपा की सरकार बनी तो ईश्वर साहू के बेटे के हत्यारों को जेल भेजा जाएगा। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का मुद्दा काम कर गया और ईश्वर साहू को उसके समाज का भी भरपूर साथ मिला। ईश्वर साहू ने पांच हजार से ज्यादा वोटों से कांग्रेस नेता रविंद्र चौबे को हराया है। रविंद्र चौबे को 96, 593 वोट मिले, तो वहीं ईश्वर साहू को 1,071,89 वोट मिले हैं।
साजा विधानसभा सीट का इतिहास
साजा विधानसभा सीट 1967 में अस्तित्व में आया। उस समय साजा, वीरेन्द्रनगर, रेंगाखार, सिल्हाटी सहित सहसपुर लोहारा तक फैला हुआ था। प्रथम विधायक रामराज परिषद के थानखम्हरिया निवासी मालूराम सिंघानिया ने कांग्रेस के देवी प्रसाद चौबे को लगभग 1700 मतों से पराजित कर दिया था। 1972 में हुए चुनाव में कांग्रेस के पंडित देवी प्रसाद चौबे ने रामराज परिषद को हराकर इस पर कब्जा किया। इसके बाद से ये क्षेत्र कांग्रेस का गढ़ रहा और इस पर चौबे परिवार का ही कब्जा रहा। 14 अगस्त 1976 को पंडित देवी प्रसाद के अचानक निधन होने के बाद कांग्रेस ने यहां से खैरागढ़ राजपरिवार के लाल ज्ञानेंद्र सिंह को प्रत्याशी बनाया। जिसके बाद प्रदीप चौबे ने जनता पार्टी से चुनाव लड़कर कांग्रेस प्रत्याशी को हराया और विधानसभा में पहुंचे। इसके बाद परिसीमन करते हुए साजा और बेरला ब्लॉक के गावों को शामिल कर साजा विधानसभा बनाया गया। प्रदीप चौबे की राजनीति में ज्यादा दिलचस्पी नहीं देख उनकी मां कुमारी देवी चौबे 1980 में कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा पहुंचीं।
इसके बाद 1985 से लेकर 2013 तक लगातार 6 बार विधानसभा में साजा का प्रतिनिधित्व पंडित देवी प्रसाद चौबे के बेटे रविन्द्र चौबे ने किया, जो मध्यप्रदेश शासन में उच्च शिक्षा, स्कूली शिक्षा, नगरीय प्रशासन और संसदीय कार्य मंत्री रहे। वहीं छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद रविंद्र चौबे लोक निर्माण मंत्री रहे। 2008 में फिर से हुए परिसीमन के बाद दुर्ग जिले के धमधा विधानसभा को विलोपित करते हुए साजा-धमधा विधानसभा का गठन किया गया। रविंद्र चौबे 2008 में लाभचंद बाफना को हराकर विधानसभा पहुंचे। वे छत्तीसगढ़ विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष भी रहे हैं, लेकिन 2013 के चुनाव में लाभचंद बाफना ने कांग्रेस के किले को ढहाते हुए 7 बार के विधायक रविंद्र चौबे को हराकर विधानसभा पहुंचे। 2018 में हुए चुनाव में रविंद्र चौबे ने संसदीय सचिव लाभचंद बाफना को बड़े अंतर से हराते हुए फिर से इस सीट पर कब्जा किया और छत्तीसगढ़ सरकार में कृषि, पंचायत एवं ग्रामीण पशुपालन मंत्री बने। लेकिन आठवीं बार रविंद्र चौबे भाजपा के ईश्वर साहू से चुनाव हार गए हैं।