Kuwanr Chain Singh: नरसिंहगढ़ पैलेस के राजकुमार कुंवर चैन सिंह ने जब अंग्रेजी सिपाहियों के छक्के छुड़ा दिए, मर गए मगर अंग्रेजों को उनकी बॉडी नहीं मिल पाई...
Kuwanr Chain Singh: 1857 के पहले मालवा में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ क्रांति का बिगुल फूंकने वाले नरसिंहगढ़ के राजकुमार कुंवर चैन सिंह परमार का आज बलिदान दिवस है। मालवा में उन्होंने अंग्रेजों के विरोध का सबसे पहले बीड़ा उठाया। मुठ्ठी भर लडाकों के साथ अंग्रेजी सिपाहियों से लड़ते-लड़ते बलिदान दे दिया मगर कहते हैं, उनका शरीर अंग्रेजों को नहीं मिल पाया। उनका कुत्ता उनका सिर उठाकर नरसिंहगढ़ राजमहल लेकर चला गया। कुंवर चैन सिंह सर्वेश्वरी समूह के प्रमुख गुरूपद बाबा संभवराम जी के पूर्वज थे।

Kuwanr Chain Singh: रायपुर। हालांकि, भारत में राज परिवारों द्वारा अंग्रेजों की मदद कर उनसे तमगा हासिल करने के कई प्रमाणित किस्से हैं। मगर राजपरिवारों में कुछ ऐसे राजा और राजकुमार थे, जो देश के लिए अपना बलिदान दे दिया। नरसिंहगढ़ पैलेस के कुंवर चैन सिंह परमार उन्हीं में से एक थे।
जाहिर है, भारत में व्यापारी के रूप में आई ईस्ट इंडिया कंपनी की हड़प नीति के चलते देशी रियासतों और आम नागरिक बहुत प्रताड़ित और व्यथित हो रहे थे। अपनी विस्तारवादी लिप्सा के चलते कंपनी जहां रजवाड़ों और रियासतों को अधिकार विहीन कर रही थी, वहीं व्यापार के बहाने नागरिकों का दोहन भी कर रही थी। इस वजह से यदा कदा कंपनी की खिलाफत के सुर भी सुनाई पड़ने लगे थे।
सन 1818 में ईस्ट इंडिया कंपनी और भोपाल के तत्कालीन नवाब के बीच हुए समझौते के बाद कंपनी ने सीहोर में एक हजार सैनिकों की छावनी बनाई। कंपनी द्वारा नियुक्त पॉलिटिकल एजेंट मैडॉक को इन फौजियों का प्रभारी बनाया गया। इस फौजी टुकड़ी का वेतन भोपाल रियासत के शाही खजाने से दिया जाता था। समझौते के तहत पॉलिटिकल एजेंट मैडॉक को भोपाल सहित नजदीकी नरसिंहगढ़, खिलचीपुर और राजगढ़ रियासत से संबंधित राजनीतिक अधिकार भी सौंप दिए गए। बाकी तो चुप रहे, लेकिन इस फैसले को नरसिंहगढ़ रियासत के युवराज कुंवर चैन सिंह ने गुलामी की निशानी मानते हुए स्वीकार नहीं किया। अंग्रेजों की आंखों की किरकिरी बन चुके कुंवर चैन सिंह ने रियासत से गद्दारी कर रहे अंग्रेजों के पिट्ठू दीवान आनंदराम बख्शी और मंत्री रूपराम बोहरा को मार दिया।
मंत्री रूपराम के भाई ने कुंवर चैन सिंह के हाथों अपने भाई के मारे जाने की शिकायत कलकत्ता स्थित गवर्नर जनरल से की। गवर्नर जनरल के निर्देश पर पॉलिटिकल एजेंट मैडॉक ने कुंवर चैन सिंह को भोपाल के नजदीक बैरसिया में एक बैठक के लिए बुलाया। बैठक में मैडॉक ने कुंवर चैन सिंह को दीवान आनंद राम बख्शी और मंत्री रूपराम बोहरा की हत्या के अभियोग से बचाने के लिए दो शर्तें रखीं। पहली शर्त थी कि नरसिंह गढ़ रियासत, अंग्रेजों की अधीनता स्वीकारे। दूसरी शर्त थी कि क्षेत्र में पैदा होनेवाली अफीम की पूरी फसल सिर्फ अंग्रेजों को ही बेची जाए। कुंवर चैन सिंह द्वारा दोनों ही शर्तें ठुकरा देने पर मैडॉक ने उन्हें 24 जून 1824 को सीहोर पहुंचने का आदेश दिया। अंग्रेजों की बदनीयती का अंदेशा होने के बाद भी कुंवर चैन सिंह नरसिंह गढ़ से अपने विश्वस्त साथी सारंगपुर निवासी हिम्मत खां और बहादुर खां सहित 43 सैनिकों के साथ सीहोर पहुंचे। जहां पॉलिटिकल एजेंट मैडॉक और अंग्रेज सैनिकों से उनकी जमकर मुठभेड़ हुई। कुंवर चैन सिंह और उनके मुट्ठीभर विश्वस्त साथियों ने शस्त्रों से सुसज्जित अंग्रेजों की फौज से डटकर मुकाबला किया। घंटों चली लड़ाई में अंग्रेजों के तोपखाने ओर बंदूकों के सामने कुंवर चैन सिंह और उनके जांबाज लड़ाके डटे रहे।
देश में जब अंग्रेजी कुशासन का दौर चल रहा था तब उन्हें सीधे-सीधे चुनौती देने एवं ललकारने का साहस मालवा में सीहोर की धरती पर कुंवर चैन सिंह ने दिखाया।
सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम के दौरान 6 अगस्त 1857 को हुए सीहोर सैनिक छावनी विद्रोह के भी 33 वर्ष पहले हुई नरसिंह गढ़ रियासत के युवराज कुंवर चैन सिंह ओर उनके साथियों की इस शहादत का अपना महत्व है। 1824 की यह घटना नरसिंह गढ़ रियासत के युवराज कुंवर चैन सिंह परमार को इस अंचल के पहले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में प्रतिष्ठित करती है।
