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बीजेपी के मंतूराम

बीजेपी के मंतूराम
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By NPG News

संजय के दीक्षित
तरकश, 27 सितंबर 2020
मरवाही उपचुनाव में प्रत्याशी को लेकर भाजपा में भी मशक्कत कम नहीं चल रही। पार्टी कई चेहरों में संभावनाएं टटोल रही है। चार बार के विधायक रहे रामदयाल उइके के नाम पर भी पार्टी ने विचार किया। वे बीजेपी से पहली बार मरवाही से ही चुनाव जीते थे। 2001 में पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के चुनाव लड़ने के लिए उन्होंने न केवल विधायक पद से इस्तीफा दे दिया था बल्कि भाजपा छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो गए थे। हालांकि, 17 साल कांग्रेस में रहने के बाद रामदयाल भाजपा में लौट आए हैं। लेकिन, बीजेपी को कांफिडेंस नहीं है। पार्टी को लगता है कहीं, मंतूराम जैसी स्थिति न पैदा हो जाए। अंतागढ़ विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस के मंतूराम पवार ने नाम वापस लेकर भाजपा को वाॅक ओवर दे दिया था। ऐसे में, भाजपा समीरा पैकरा और डाक्टर गंभीर में से किसी एक पर दांव आजमा सकती है। ठीक भी हैं। प्रत्याशी चयन में सावधानी बरतनी चाहिए। आखिर, मंतूरामों के बारे में बीजेपी से बेहतर कौन समझ सकता है।

अजीत की जगह अजीत

कांग्रेस से मरवाही उपचुनाव के लिए तीन नाम सबसे उपर हैं। अजीत श्याम, प्रमोद परस्ते और डाॅ0 ध्रुव। अजीत श्याम बरसों से कांग्रेस के लिए काम कर रहे हैं। उनकी पत्नी पेंड्रा जनपद पंचायत की उपाध्यक्ष हैं। प्रमोद परस्ते किसी जांच की वजह से सिविल जज से इस्तीफा देकर कांग्रेस ज्वाईन किए थे। और डाॅ0 ध्रुव लोकल नहीं हैं। वे करीब 15 साल से सरकारी सेवा में हैं। प्रैक्टिस उनकी अच्छी है। लेकिन, उन पर जोगी का संरक्षण रहा है और फिर बाहरी होने का इश्यू भी रहेगा। ऐसे में, अजीत श्याम का पलड़ा भारी लग रहा है। यानी अजीत जोगी की खाली सीट पर कांग्रेस से अजीत को उतारा जा सकता है।

कलेक्टर के बाबू

छत्तीसगढ़ बनने के पहिले तक लोगों ने देखा है…जिला मुख्यालयों में तीन बंगले सबसे बड़े होते थे। कलेक्टर, एसपी और सीएमएचओ के। सीएमएचओ तब काफी प्रभावशाली होते थे। लोग इनके नामों से जानते थे। लेकिन, धीरे-धीऐ ऐसा हुआ कि सीएमएचओ नाम का औरा खतम हो गया। सरकारें एक के बाद एक कलेक्टरों को पावर देती गईं। अब आलम यह है कि सीएमएचओ और सिविल सर्जन को छोटा सा भी काम करना है तो इसके लिए कलेक्टर से बात करनी पड़ती है। आज की तारीख में सीएमएचओ की हैसियत कलेक्टर के बाबू से ज्यादा नहीं रह गई है। उनका एक प्रमुख काम रह गया है…कलेक्टरों को टाईम पर खरीदी का कमीशन पहुंचा आओ। ऐसे मेें, स्वास्थ्य योजनाओं का बंटाधार तो होगा ही।

बंगले की बात

बंगले की बात निकली तो देवेंद्र नगर का आफिसर्स कालोनी की बात भी हो जाए। चीफ सिकरेट्री बनने के बाद आरपी मंडल जब नया रायपुर कूच किए तो बहुतों को अंदेशा था कि काफी लोग उनके साथ नया रायपुर जाएंगे। मगर ऐसा हुआ नहीं। सिर्फ रीता शांडिल्य गईं। कई अफसर अब मान रहे हैं…नया रायपुर शिफ्थ हो गए होते तो इस तरह दुबक कर नहीं रहना पड़ता। देवेंद्र नगर की हालत बड़ी खराब है। हर लेन के दो-एक घरों में कोरोना अब तक दस्तक दे चुका है। डीआईजी ओपी पाल के इंफेक्टेड होने के बाद तो दहशत और बढ़ गई है। अफसरों ने वाॅक पर निकलना बंद कर दिया है। दरअसल, देवेंद्र नगर काफी सघन काॅलोनी है। घरों की दीवारे एक-दूसरे से लगी हुई हैं। काम करने वाले स्टाफ एक-दूसरे से मिलते हैं और या तो कोरोना दे आते है या फिर ले आते हैं।

अलरमेल को फायनेंस

11 आईएएस अफसरों की पोस्टिंग लिस्ट में सबसे अहम अलरमेल मंगई का नाम रहा। मंगई को सिकरेट्री फायनेंस बनाया गया है। फायनेंस में अमिताभ जैन एसीएस हैं। वे रमन सरकार के समय से फायनेंस संभाल रहे हैं। लेकिन, अब उनका इस पद पर रहना संभव नहीं होगा। क्योकि, 30 नवंबर को चीफ सिकरेट्री आरपी मंडल का रिटायरमेंट है। मंडल के बाद सीनियरिटी में अमिताभ हैं। वे सीएस बने तब भी और ना बने तब भी उन्हें फायनेंस छोड़ना पड़ेगा। ऐसे में, सीएम भूपेश ने सोच-समझकर अमिताभ का विकल्प तैयार करने के लिए मंगई को फायनेंस में भेजा है। असल में, फायनेंस सबके वश की बात नहीं होती। इस विभाग में लंबे समय तक दो ही अफसर काम किए हैं। एक डीएस मिश्रा। रमन सरकार के 15 साल में करीब नौ साल डीएस ने फायनेंस संभाला। और, लगभग चार साल से अमिताभ इस विभाग को देख रहे हैं। सरकारें अगर बदलती हैं तब भी फायनेंस सिकरेट्री नहीं बदला जाता। 2003 में मुख्यमंत्री डाॅ0 रमन सिंह ने भी अशोक विजयवर्गीय को फायनेंस सिकरेट्री के रूप में कंटीन्यू रखा था। फायनेंस सिकरेट्री के पास सरकार के खजाने की चाबी होती है। भरोसेमंद अफसर को ही सरकार फायनेंस का जिम्मा सौंपती है।

ट्रांसपोर्ट में चेंज

ट्रांसपोर्ट के एडिशनल कमिश्नर टीआर पैकरा प्रमोट होकर आईजी बन गए हैं। हालांकि, ट्रांसपोर्ट में हमेशा आईजी लेवल के अफसर ही आमतौर पर एडिशनल कमिश्नर रहे हैं। वायकेएस ठाकुर, आरके विज, अशोक जुनेजा, संजय पिल्ले, बीएस मरावी, एमएस तोमर, एसआरपी कल्लूरी सभी आईजी रहे। रमन सरकार ने पहली बार डीआईजी ओपी पाल को एडिशनल कमिश्नर बनाया था। उनके बाद डीआईजी पैकरा। अब चर्चा है, पैकरा की जगह अब किसी बड़े जिले के एसपी को ट्रांसपोर्ट में बिठाया जा सकता है।

नाम से गफलत

ब्यूरोक्रेसी में हमनाम या मिलते-जुलते नाम के कारण कई बार ब्लंडर हो जाता है। दो दिन पहले ही आर प्रसन्ना को मेडिकल एजुकेशन सिकरेट्री बनाने का आदेश जारी हुआ। और, इसके एक घंटे बाद पता चला कि मामला गफलत का रहा। आदेश निकालना था सीआर प्रसन्ना का तो निकल गया आर प्रसन्ना का। जीएडी ने डेढ़ घंटे बाद फिर संशोधित आदेश निकालकर बताया कि आर प्रसन्ना नहीं, सीआर प्रसन्ना पढ़ा जाए। इससे पहिले भी डीएस मिश्रा और जीएस मिश्रा में बड़ा कंफ्यूजन था। लोगों को दोबारा रिपीट करना पड़ता था…डीएस या जीएस। प्रसन्नाद्वय के साथ भी यही दिक्कत है। फर्क करने के लिए सीआर प्रसन्ना को छोटा प्रसन्ना और आर प्रसन्ना को बड़ा प्रसन्ना कहा जाता है। छत्तीसगढ़ में संगीता भी दो हैं। एक संगीता आर और दूसरी संगीता पी। इसमें भी छोटी संगीता, बड़ी संगीता।

धनंजय को मौका

कांग्रेस सरकार में धनंजय देवांगन को पहली बार इंडिपेंडेंट चार्ज मिला है। उन्हें हायर एजुकेशन विभाग का सिकरेट्री बनाया गया है। राप्रसे से आईएएस बनने वाले अधिकारियों में वे काफी अनुभवी माने जाते हैं। रिकार्ड पांच जिला पंचायत में वे सीईओ रह चुके हैं। बिलासपुर नगर निगम के कमिश्नर भी। रजिस्ट्रार भी रहे हैं। हालांकि, प्रमोटी में उमेश अग्रवाल को भी स्वतंत्र चार्ज मिलने की उम्मीद थी मगर ऐसा हुआ नहीं। एसीएस सुब्रत साहू के उर्जा विभाग में उन्हें सिकरेट्री का अतिरिक्त चार्ज दिया गया। होम उनके पास पहले से है।

डीजीपी साहब….हमें भी

तरकश की खबर पर संज्ञान लेते हुए डीजीपी डीएम अवस्थी ने एसपी और आईजी को कड़े पत्र लिखकर कहा कि ट्रांसफर हुए अफसरों को अगर रिलीव नहीं किया गया तो उनके खिलाफ एक्शन लिया जाएगा। अगले दिन 60 अधिकारी कार्यमुक्त हो गए। इसके बाद बस्तर रेंज के कई जिलों के थानेदारों ने इस स्तंभ के लेखक को मैसेज किया…सर, डीजीपी साहब ने मेरा भी ट्रांसफर किए हैं….मगर एसपी साहब मान नहीं रहे, कहते हैं…बस्तर में डीजीपी साहब का आदेश नहीं चलता…सर! मेरे लिए भी कुछ कीजिए।

डीजीपी और डीजी नक्सल भी

छत्तीसगढ़ जैसे छोटे राज्य में डीजीपी और डीजी नक्सल के प्रयोग पर अब सवाल खड़े हो रहे हैं। कह सकते हैं…इससे पुलिस महकमे का तालमेल गड़बड़ा रहा है। एएन उपध्याय जब डीजीपी थे और डीएम अवस्थी डीजी नक्सल तब ये प्रयोग इसलिए चल गया क्योंकि, उपध्याय भोले-भंडारी थे। बाद में डीएम डीजीपी बन गए और गिरधारी नायक डीजी नक्सल। पुलिस के सीनियर अधिकारी भी स्वीकार करते हैं कि डीजी नक्सल अलग होने के बाद मैदानी और नक्सल इलाकों के बीच एक लकीर खींच गई है। जाहिर तौर पर बस्तर के पुलिस अधिकारी डीजी नक्सल को ही सब कुछ मानते हैं। अगर वास्तव में ऐसा है, तो ये ठीक नहीं है।

अंत में दो सवाल आपसे

1. इसमें कितनी सच्चाई है कि मरवाही में भाजपा दम लगाकर चुनाव लड़ने की बजाए छजपां के अमित जोगी को मदद पहुंचाएगी?
2. 2 अक्टूबर को 70 बरस के हो रहे बिलासपुर विश्वविद्यालय के कुलपति गौरीदत्त शर्मा का कार्यकाल बढ़ेगा या सरकार कमिश्नर को विवि की कमान सौंप देगी?

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