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High Court News: न्याय में उम्र भी मायने रखती है! कोर्ट ने कहा- अंतिम फैसले के बाद भी आरोपी नाबालिग साबित हो सकता है, पढ़िए पूरी खबर

High Court News: हाई कोर्ट ने आपराधिक प्रकरण की सुनवाई के दौरान एक आरोपी की उस अपील को स्वीकार कर लिया है जिसमें घटना के समय अपने आपको नाबालिग बताते हुए सजा में रियायत की गुहार लगाई है। यह मामला अपराध के 32 साल तब आया जब मामले की सुनवाई अंतिम चरण में है। हाई कोर्ट ने कहा, यह दावा किसी भी स्तर पर किया जा सकता है। मामले की अंतिम सुनवाई का दौर ही क्यों ना हो। पढ़िए हाई कोर्ट ने किशोर न्याय बोर्ड को क्या निर्देश जारी किया है।

High Court News: न्याय में उम्र भी मायने रखती है! कोर्ट ने कहा- अंतिम फैसले के बाद भी आरोपी नाबालिग साबित हो सकता है, पढ़िए पूरी खबर
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High Court News

By Radhakishan Sharma

High Court News: पटना। पटना हाई कोर्ट में एक ऐसा मामला आया है जिसे पढ़कर आप भी चौंक जाएंगे। आपराधिक प्रकरण की सुनवाई के 32 साल बाद घटना के एक आरोपी ने घटना के वक्त अपने आपको नाबालिग बताते हुए सजा में रियायत की मांग की है। मामले की सुनवाई के बाद हाई कोर्ट ने उसकी मांग को स्वीकार करते हुए किशोर न्याय बोर्ड को 18 अगस्त, 2025 से अपीलकर्ता की आयु की जांच करने का निर्देश दिया है। कोर्ट ने इसके लिए बोर्ड को तीन महीने का समय दिया है। तीन महीने के बाद किशोर न्याय बोर्ड को अपनी रिपोर्ट हाई कोर्ट को सौंपनी होगी।

मामले की सुनवाई करते हुए हाई कोर्ट ने कहा, इस तरह की मांग सुनवाई के किसी भी स्तर पर की जा सकती है। हाई कोर्ट ने कहा, किसी भी आपराधिक मामले में आरोपी द्वारा कार्यवाही के किसी भी चरण में, यहां तक कि मामले के अंतिम निपटारे के बाद भी, नाबालिग होने का दावा किया जा सकता है।

पटना हाई कोर्ट के सिंगल बेंच ने किशोर न्याय बोर्ड JJB सीवान को 1993 के हत्या के प्रयास के मामले में दोषी ठहराए गए आठ अपीलकर्ताओं में से एक के नाबालिग होने के दावे की जांच करने का निर्देश दिया। फास्ट-ट्रैक सेशन कोर्ट द्वारा 2017 में सभी आठ आरोपियों को भारतीय दंड संहिता IPC की धारा 307, 148, 149 और 326 के तहत सजा सुनाए जाने के खिलाफ दायर एक आपराधिक अपील पर हाई कोर्ट ने किशोर न्याय बोर्ड को यह निर्देश जारी किया है।

याचिकाकर्ता ने घटना के समय नाबालिग होने का दावा किया है। बिहार विद्यालय परीक्षा समिति द्वारा जारी मैट्रिकुलेशन सर्टिफिकेट प्रस्तुत किया है, जिसमें उसकी जन्मतिथि 15 जून, 1975 दर्शाई गई है। घटना के दिन 1 जून, 1993 को उसकी आयु 17 वर्ष, 11 महीने और 15 दिन था। किशोर न्याय अधिनियम, 2000 JJ Act और 2006 के संशोधन का हवाला देते हुए याचिकाकर्ता के अधिवक्ता ने कहा, किशोर न्याय अधिनियम, 1986 (जिसमें किशोर की आयु 16 वर्ष से कम आयु के पुरुषों के लिए निर्धारित की गई थी) के तहत अपराध किए जाने के बावजूद, वह 2000 के अधिनियम के तहत संरक्षण का हकदार है, जिसने पूर्वव्यापी रूप से आयु को 18 वर्ष कर दिया था।

अपर लोक अभियोजक ने इस दलील का विरोध करते हुए तर्क दिया कि घटना के समय याचिकाकर्ता की आयु 16 वर्ष से अधिक थी। उसे 1986 के अधिनियम के तहत किशोर नहीं माना जा सकता। अतिरिक्त लोक अभियोजक ने तर्क दिया कि 2000 के अधिनियम को पूर्वव्यापी रूप से लागू नहीं किया जा सकता।

मामले की सुनवाई के दौरान सिंगल बेंच ने राज्य सरकार की आपत्तियों को खारिज कर दिया। सिंगल बेंच ने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला देते हुए कहा, 2000 का अधिनियम, जैसा कि 2006 में संशोधित किया गया था, सभी लंबित मामलों पर लागू होता है, चाहे वे ट्रायल, पुनर्विचार या अपील हो।

सिंगल बेंच ने अशोक बनाम मध्य प्रदेश सरकार की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया है जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, भले ही इस मामले में अपराध 2000 अधिनियम के लागू होने से पहले किया गया हो, फिर भी याचिकाकर्ता 2000 अधिनियम की धारा 7-ए के तहत किशोर होने का लाभ पाने का हकदार है, यदि जांच में यह पाया जाता है कि कथित अपराध की तिथि पर उसकी आयु 18 वर्ष से कम थी।

सिंगल बेंच ने कहा, किशोर होने का दावा किसी भी न्यायालय के समक्ष, किसी भी स्तर पर, यहां तक कि मामले के अंतिम निपटारे के बाद भी उठाया जा सकता है। यदि न्यायालय किसी व्यक्ति को अपराध की तिथि पर किशोर पाता है तो उसे उचित आदेश पारित करने के लिए किशोर न्याय बोर्ड के पास भेजना होगा।संदेह का लाभ अभियुक्त को तब मिलना चाहिए, जब मैट्रिकुलेशन सर्टिफिकेट जैसे दस्तावेज़ी साक्ष्य प्रथम दृष्टया अपराध की तिथि पर उसकी आयु 18 वर्ष से कम स्थापित करते हैं। सिंगल बेंच ने कहा, यह स्पष्ट है कि यदि अपराध की तिथि पर अपीलकर्ता की आयु 18 वर्ष से कम पाई जाती है तो वह अधिनियम 2000 के तहत लाभ पाने का हकदार होगा।

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