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उस दिन सुरंग गिरी तो लगा था, अब यहीं दफन हो जाएंगे, श्रमवीरों की आपबीती...

कई साथी सुरंग में काम करने के लिए जाने के पहले चना-मूढ़ी लेकर आए थे। आपस में थोड़ा-थोड़ा बांटकर खाते रहे। सुरंग में मौजूद पाइप में भी पानी था। वह काम आया। चट्टानों से भी पानी रिस रहा था।

उस दिन सुरंग गिरी तो लगा था, अब यहीं दफन हो जाएंगे, श्रमवीरों की आपबीती...
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By Sandeep Kumar

रांची। "उस दिन सुरंग गिरी तो लगा था, अब यहीं दफन हो जाएंगे। शुरुआत में आठ-दस घंटे तो इस चिंता में गुजरे कि पता नहीं अब कभी बाहर की रोशनी देख पाएंगे या फिर जिंदगी यहीं खत्म हो जाएगी। इसके बाद भूख-प्यास सताने लगी।

कई साथी सुरंग में काम करने के लिए जाने के पहले चना-मूढ़ी लेकर आए थे। आपस में थोड़ा-थोड़ा बांटकर खाते रहे। सुरंग में मौजूद पाइप में भी पानी था। वह काम आया। चट्टानों से भी पानी रिस रहा था। कई साथियों ने वह पानी पीकर प्यास बुझाई। तीसरे दिन ड्रिलिंग के जरिए सुरंग तक पहुंचाई गई पाइप से जब खाने का सामान और पानी पहुंचने लगा तो हमारी उम्मीदें बढ़ गईं। हम सब एक-दूसरे को हिम्मत बंधाते रहे।"

यह कहानी राजेंद्र बेदिया ने ऋषिकेश से फोन पर बताई। रांची के ओरमांझी थाना अंतर्गत खीराबेड़ा गांव निवासी राजेंद्र उन 41 श्रमवीरों में शामिल हैं, जो उत्तरकाशी के सिलक्यारा टनल से 17 दिनों बाद बाहर आए हैं। सुरंग में झारखंड के कुल 15 लोग थे। इनमें से चार लोगों ने फोन पर आपबीती सुनाई।

खीराबेड़ा गांव के ही सुखराम ने भी बताया, "मुझे तो किसी दिन अच्छी नींद नहीं आई। दिन-रात भगवान और परिवार को याद करते हुए गुजरा। सुरंग के भीतर रात-दिन का फर्क मिट गया था। कई साथियों के पास मोबाइल था। जब तक सुरंग के भीतर बाहर से चार्जर नहीं भेजा गया, तब तक वे कभी-कभी मोबाइल सिर्फ टाइम देखने के लिए ऑन करते थे। तीसरे दिन पाइप के जरिए जब चार्जर सुरंग के अंदर भेजा गया, तब मोबाइल देखते हुए समय गुजरने लगा। जब हर रोज कुछ घंटों के अंतराल पर खाना-पानी पहुंचने लगा, तब बहुत राहत मिली।"

झारखंड के गिरिडीह के बिरनी निवासी विश्वजीत ने बताया, "12 नवंबर को हम लोग टनल के अंदर अपनी धुन में काम में जुटे थे, तब सुबह करीब साढ़े पांच बजे टनल का एक हिस्सा अचानक गिरा। हम लोग वहां से टनल की दूसरी तरफ भागे। टनल का जो हिस्सा गिरा था, वहां पर पानी के पाइप से टनल के अंदर पानी गिरने लगा।"

उन्होंने बताया, "दरअसल, टनल निर्माण के दौरान यह पाइप भीतर का पानी बाहर निकालने के लिए लगाई गई थी। अब इसी पाइप से वापस पानी गिरने लगा तो लगा कि अगर अंदर पानी भर गया तो कोई जीवित नहीं बच पाएगा। तब सबने मिलकर तय किया कि पाइप को काट दिया जाए। ऐसा ही किया गया। यही पाइप हमारी लाइफलाइन बन गई। इसी के जरिए ऑक्सीजन, ड्राईफ्रूट, चना आदि अंदर पहुंचने लगा।"

सुरंग के भीतर दिन कैसे गुजरे? इस सवाल पर विश्वजीत ने कहा, "जब राहत सामग्री नियमित रूप से पहुंचने लगी तो हम सब टनल के अंदर टहलते हुए, एक-दूसरे से बात करते हुए, मोबाइल देखते हुए और कागज के टुकड़ों को ताश का पत्ता बनाकर खेलते हुए समय गुजारते रहे।"

सुरंग से बाहर आए झारखंड के खूंटी जिला अंतर्गत कर्रा निवासी विजय होरो ने बताया कि सुरंग के भीतर फंसने पर पहले तो यही लगा कि अब शायद ही कभी यहां से निकल पाएंगे। फोरमैन गब्बर सिंह और सबा अहमद से सबसे ज्यादा हौसला बंधाया। बाद में जब माइक्रोफोन के जरिए बाहर के लोगों से बात होने लगी तो विश्वास जगा कि हम सबको सुरक्षित निकाल लिया जाएगा। अब जल्द से जल्द गांव लौटने की इच्छा हो रही है।

Sandeep Kumar

संदीप कुमार कडुकार: रायपुर के छत्तीसगढ़ कॉलेज से बीकॉम और पंडित रवि शंकर शुक्ल यूनिवर्सिटी से MA पॉलिटिकल साइंस में पीजी करने के बाद पत्रकारिता को पेशा बनाया। मूलतः रायपुर के रहने वाले हैं। पिछले 10 सालों से विभिन्न रीजनल चैनल में काम करने के बाद पिछले सात सालों से NPG.NEWS में रिपोर्टिंग कर रहे हैं।

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