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Supreme Court: सलवा जुड़ूम केस बंद, सुप्रीम कोर्ट ने कहा- राज्य में शांति और पुनर्वास के लिए उठाए जाएं ठोस कदम

छत्तीसगढ़ के बस्तर में नक्सलियों के खिलाफ आम लोगों को जोड़ने और लड़ाई लड़ने के लिए छत्तीसगढ़ सरकार ने सलवा जुड़ूम चलाया था। 2007 का सलवा जुडूम मामला बंद करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संसद या राज्य विधानमंडल द्वारा बनाया गया कोई भी कानून न्यायालय की अवमानना ​​नहीं माना जा सकता। नंदिनी सुंदर व अन्य ने छत्तीसगढ़ के सहायक सुरक्षा बल पर नए कानून को न्यायालय की अवमानना ​​बताते हुए याचिका दायर कर इसे बंद करने की मांग की थी। याचिका 2007 में सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई थी। 18 साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने याचिका को खारिज कर दिया है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा: अपराध के बाद फरार होना अपने आप में दोष साबित नहीं करता, लेकिन यदि......।
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Supreme Court

By Radhakishan Sharma

दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने 18 साल पहले समाजशास्त्री नंदिनी सुंदर व अन्य ने सलवा जुड़ूम को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। 18 साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने दायर याचिकाओं पर सुनवाई के बाद खारिज कर दिया है। याचिकाकर्ताओं ने अपनी याचिका में छत्तीसगढ़ में सुरक्षा बलों और सलवा जुडूम कार्यकर्ताओं द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन का आरोप लगाया था।

छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा स्थानीय आदिवासी युवाओं को विशेष पुलिस अधिकारी SPO के रूप में तैनात करने और राज्य में माओवादी समस्या के खिलाफ जवाबी उपाय के रूप में उन्हें प्रशिक्षित करने का निर्णय लेते हुए आदिवासी युवाओं को एसपीओ के पद पर भर्ती करना प्रारंभ किया। वर्ष 2011 में मानवाधिकारों के उल्लंघन की शिकायत पर सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक निर्णय देते हुए छत्तीसगढ़ सरकार को राज्य में उग्रवाद समस्या से निपटने के लिए सभी SPO - ​​या 'कोया कमांडो', सलवा जुडूम को भंग करने का निर्देश दिया था।

इसी तरह के मामले से संबंधित दो रिट याचिकाएं और एक अवमानना ​​याचिका सुप्रीम कोर्ट के समक्ष लंबित थी। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने तीनों मामलों का निराकरण कर दिया है। रिट याचिकाओं का निपटारा इस आधार पर किया गया कि उनमें मांगी गई कांगे कोर्ट के 2011 के फैसले में स्पष्ट रूप से निहित हैं। अवमानना ​याचिका को परमादेश की रिट की मांग के रूप में देखा गया, जिसे अवमानना ​​क्षेत्राधिकार के तहत मंजूर नहीं किया जा सकता था।

​​अवमानना ​​याचिका में दावा किया गया कि छत्तीसगढ़ सहायक सशस्त्र पुलिस बल अधिनियम, 2011 (जिसने माओवादी/नक्सली उग्रवाद समस्या से निपटने में सुरक्षा बलों की सहायता के लिए एक सहायक सुरक्षा बल की स्थापना की) के अधिनियमन के परिणामस्वरूप न्यायालय की अवमानना ​​हुई है। जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने कहा, "हम यह भी देखते हैं कि छत्तीसगढ़ राज्य के विधानसभा द्वारा इस न्यायालय के आदेश के बाद अधिनियम पारित करना इस न्यायालय द्वारा पारित आदेश की अवमानना ​​का कार्य नहीं कहा जा सकता।

न्यायालय ने कहा कि राज्य अधिनियम तब तक कानून की ताकत रखता है, जब तक कि उसे संवैधानिक न्यायालय द्वारा संविधान के विरुद्ध घोषित न कर दिया जाए। हमें यह याद रखना चाहिए कि विधायी कार्य के केंद्र में विधायी अंग की कानून बनाने और संशोधन करने की शक्ति है। संसद या राज्य विधानमंडल द्वारा बनाए गए किसी भी कानून को केवल कानून बनाने के लिए इस न्यायालय सहित न्यायालय की अवमानना ​​का कार्य नहीं माना जा सकता।

किसी भी कानून को केवल विधायी क्षमता और संवैधानिक वैधता के दोहरे पहलुओं पर ही चुनौती दी जा सकती है। न्यायालय ने आगे कहा, "विधानसभा के पास अन्य बातों के साथ-साथ कानून पारित करने, किसी निर्णय के आधार को हटाने या वैकल्पिक रूप से संवैधानिक न्यायालय द्वारा निरस्त किए गए कानून को संशोधित या परिवर्तित करके वैध बनाने की शक्तियां हैं। ताकि संवैधानिक न्यायालय के उस निर्णय को प्रभावी बनाया जा सके, जिसने किसी अधिनियम के किसी भाग या उस मामले के लिए संपूर्ण अधिनियम को निरस्त किया।

केंद्र व राज्य शासन को दिया आदेश-

छत्तीसगढ़ की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए न्यायालय ने यह भी कहा कि क्षेत्र में शांति और पुनर्वास के लिए विशिष्ट कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। इस संबंध में न्यायालय ने कहा, संविधान के अनुच्छेद 315 को ध्यान में रखते हुए छत्तीसगढ़ राज्य के साथ-साथ भारत संघ का यह कर्तव्य है कि वे छत्तीसगढ़ राज्य के निवासियों के लिए शांति और पुनर्वास लाने के लिए पर्याप्त कदम उठाएं, जो हिंसा से प्रभावित हुए हैं, चाहे वह किसी भी दिशा से उत्पन्न हुई हो।

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