Bhoot Police Review: श्रद्धा कपूर की फिल्म ‘स्त्री’ जैसा असर लाने में चूकी ‘भूत पुलिस’, थोड़े भूत और थोड़ी कॉमेडी…..सैफ-अर्जुन के फैन देख सकते हैं फिल्म यहां समझिए क्या कुछ रहा मिसिंग
मुंबई 10 सितम्बर 2021I म्यूजिक रियलिटी शो ‘माटी के लाल’ के सेट पर अन्नू कपूर अक्सर मुझसे कहा करते, ‘राग रसोई पागड़ी, कतहूं कतहूं बन जाए..’ यानी संगीत का राग, गृहिणी की रसोई और सिर की पगड़ी बस कभी कभी ही सौ फौसदी सही बन पाती है। सिनेमा भी ऐसा ही है। अपनी पूरी अवधि में बांध कर रखने वाली फिल्म बस कभी कभी ही बन पाती है। और, कई बार एक अच्छा विचार, एक अच्छा निर्देशक और एक अच्छा फिल्म संपादक मिलकर भी इसलिए दर्शकों को आखिर तक बांध नहीं पाते क्योंकि फिल्म की पटकथा जैसी बुनी गई, वैसी परदे पर उतर नहीं पाए। पश्चिमी देशों में ‘घोस्टबस्टर्स’ की एक अलग ही थीम पर फिल्में बनती रही हैं। शैतानी शक्तियों को तलाशकर उन्हें ‘मुक्त’ करने पर तमाम फिल्में वहां बनी हैं, ‘भूत पुलिस’ इसी विचार का देसी संस्करण है। और इस संस्करण को बनाने में पांच लेखकों का दिमाग लगा है।फिल्म ‘भूत पुलिस’ की कहानी शायद राजकुमार राव और श्रद्धा कपूर की फिल्म ‘स्त्री’ के बाद ही सोची गई है। राज निदिमोरू और कृष्णा दासरी कोथापल्ली (कृष्णा डी के) ने सुमित अरोड़ा के साथ मिलकर हिंदी सिनेमा में फिल्म ‘स्त्री’ के जरिये हिंदी सिनेमा को कमोबेश एक नई श्रेणी के करीब लाने की सफल कोशिश की थी। उसके बाद से हॉरर कॉमेडी बनाने के पीछे तमाम निर्माता और भी लगे लेकिन ‘स्त्री’ जैसा असर लाना भी राग, रसोई और पागड़ी जैसा ही है। फिल्म ‘भूत पुलिस’ में चाचा, भतीजा जैसे दिखने वाले दो भाई हैं और दोनों भूत पकड़ने निकले हैं। ट्विस्ट बस ये है कि एक इस काम को गंभीरता से लेता है और दूसरा मजाक में। फिल्म हर विभाग ने पूरी ईमानदारी से काम किया है। हां, टिप्स म्यूजिक कंपनी की फिल्म होने के चलते इसमें एक दो हॉन्टिंग सॉन्ग्स की उम्मीद लगाए बैठे दर्शकों को निराशा जरूर हुई।उलट बाबा अपने जमाने के चर्चित तांत्रिक रहे। पीलीभीत के नंबर वाली गाड़ी में उनके बेटे चिरौंजी और विभूति उनकी विरासत के सहारे रोजी रोटी कमा रहे हैं। नेपोटिज्म का एंगल भी फिल्म में है और गो किचकंडी गो का भी। कहानी शुरू होती है उलट बाबा एंड सन्स के ढोंग के जरिए पैसा कमाने से और पहुंचती है वहां जहां असल में एक प्रेतात्मा से उनका आमना सामना होने की रचना की जाती है। मुंबईया फिल्म की कहानी में दो हीरो हैं तो दो हीरोइन होना लाजिमी हैं। इसके लिए यामी गौतम और जैकलीन फर्नांडीज को रखा गया है। इन दोनों को एक चाय बागान विरासत में मिला है। यहां भी एक को विरासत से दिल से लगाव है और दूसरी को लंदन जाकर बसना है। कहानी रफ्तार में चाय बागान आकर ही आनी शुरू होती है। शुरू की अफरातफरी, टाइमपास दृश्यों और फिल्म की लंबाई बढ़ाने के लिए डाली गई क्षेपक कथाओं के बाद कहानी आखिरी के आधे घंटे ही दर्शकों को बांधकर रख पाती है।पटकथा के स्तर पर बेहद कमजोर फिल्म ‘भूत पुलिस’ में ऐसा कुछ नहीं है जो आपने पहले कभी न देखा हो। सैफ अली खान को देखकर यूं लगता है कि वह बतौर अभिनेता कुछ बेहतर करने के प्रयास छोड़ चुके हैं। उनके चेहरे के भाव दृश्य के हिसाब से पहले से सेट रहते हैं। उनके चौंकने की, वासनालिप्त होने की और मजाक करने की एक जैसी भाव भंगिमाएं हैं। हर फिल्म में वह उन्हें ही दोहराते हैं। अर्जुन कपूर फिल्म में अली फजल की जगह लाए गए हैं और कोई खास करिश्मा फिल्म में वह भी करते नहीं दिखते। किरदार के हिसाब से उन्हें थोड़ा धीर गंभीर ही रहना था लेकिन उनके संवाद उनके किरदार के हिसाब से बनावटी लगते हैं। किसी पहाड़ी बोली का पुट उनके संवादों में होता तो उनके किरदार की विरासत के हिसाब से सही रहता।फिल्म ‘भूत पुलिस’ का एक्टिंग डिपार्टमेंट इसकी नायिकाओं और चरित्र अभिनेताओं के मामले में भी बहुत कमजोर है। यामी गौतम के लिए फिल्म में करने को कुछ खास है नहीं। इससे बेहतर किरदार वह अपनी पहले की फिल्मों में कर चुकी हैं। कहानी में उनके योगदान से भी कम हिस्सा जैकलीन फर्नांडीज का है। हिंदी वह ढंग से बोल नहीं पाती हैं लिहाजा लेखक को बताना पड़ता है कि उनका दिल लंदन में लगा हुआ है। जावेद जाफरी के किरदार को स्थापित करने के लिए रचा गया दृश्य फिल्म का सबसे लंबा और सबसे कमजोर दृश्य है। राजपाल यादव भी इस दृश्य में असर छोड़ने में नाकाम रहे। यही हाल गिरीश कुलकर्णी का है। अमित मिस्त्री को परदे पर देखना भावनात्मक असर छोड़ जाता है। हां, जेमी लहरी ने अपना काम इन सबसे बेहतर किया है।भूत प्रेत वाली फिल्मों के हिसाब से फिल्म के निर्माता रमेश तौरानी ने इस पर पैसा अच्छा खर्च किया है। फिल्म की प्रोडक्शन वैल्यू भी इसके सितारों के हिसाब से ही है। जयकृष्ण गुम्माडी ने अपनी सिनेमैटोग्राफी और प्रकाश संयोजन से फिल्म को एक अच्छा और आकर्षक चोला पहनाया है। परदे पर राजस्थान के रंग खिलाने और हिमाचल प्रदेश का रहस्यमयी वातावरण गढ़ने में वह कामयाब रहे। और, इसमें फिल्म को सबसे ज्यादा मदद मिली है इसकी साउंड डिजाइन और बैकग्राउंड म्यूजिक से। इसके लिए अनिर्बान सेनगुप्ता और क्लिंटन सेरेजो तारीफ के हकदार है। फिल्म का रूप, रंग, सजावट, शोर सब बढ़िया है, बस इसकी आत्मा ‘मिसिंग’ है।