![भरोसे की हांडी से निकला पके भात का दाना... भरोसे की हांडी से निकला पके भात का दाना...](https://npg.news/h-upload/2022/12/14/1169781-whatsapp-image-2022-12-14-at-94835-pm.webp)
उमेश कुमार मिश्र
बीजापुर के मनकेली गांव में एक स्कूल 17 साल बाद फिर खुला है। प्रतिष्ठित राष्ट्रीय अखबार के छत्तीसगढ़ संंस्करणों में 13 दिसंबर 2022 को प्रकाशित एक खबर के भीतर कई खबरें हैं। इस एक खबर के निहितार्थ गौर करने के लायक हैं। बात इस बात से शुरू होती है कि वह स्कूल बंद क्यों हुआ था। खबर में ही जवाब है कि यह ही नहीं बल्कि जिले के 300 स्कूल नक्सली हिंसा के कारण बंद हुए थे। उनमें से 200से अधिक स्कूल फिर से शुरू हो गये हैं। 300 में से 200 से अधिक स्कूल 4 साल में खुल जाने के महत्व को समझने की जरूरत है। खबर बताती है कि अब उस स्कूल में फिर बच्चों की किलकारियां गूंजने लगी हैं। स्कूल में बच्चों की किलकारियां तभी गूंज सकती हैं जब उनके घर, परिवार, समाज, गांव, शहर और जिले में सुख-शांति का वातावरण हो।
किसी समस्याग्रस्त स्थान में सुख-शांति लौटने के पीछे मुख्य भूमिका राज्य सरकार की ही होती है, जिसके भरोसे पर लोगों की हिम्मत लौटती है और जन सुविधाएं बहाल होती हैं। जब जन सुविधाएं बहाल होती हैं तभी तो जनजीवन सामान्य होता है। जनता को सरकार की नीतियों, योजनाओं, कार्यक्रमों, लोक अभियानों का विश्वास और लाभ मिलने लगता है। सरकार और जनता के बीच कई तरह के रिश्ते होते हैं। जब सभी तरह के रिश्ते अच्छे होते हैं तभी सार्वजनिक-सामाजिक जीवन में समरसता, उमंग और सहभागिता होती है। नक्सलवादी गतिविधियों में उभार के दिनों को याद कीजिए। आए दिन विध्वंस से सार्वजनिक जिंदगी से लेकर निजी जिंदगी तक में आतंक का असर गहराता जा रहा था। सड़क, पंचायत भवन, राशन दुकान, चिकित्सा सुविधा हर जगह आतंक छाया था। हिंसा का आलम ऐसा था कि कब कौन सी सड़क और कौन सी स्कूल नक्सली हिंसा की भेंट चढ़ जाए, कहना मुश्किल था। ऐसे में लोग घरों में कैद रहने लगे थे तो बच्चों को स्कूल कौन भेजता? वैसे भी स्कूल तो पहले ही समर्पण की मुद्रा में थे। इसलिए ऐसा कोई वाकया भी याद नहीं आता कि तब कोई बच्चा स्कूल जाकर यह कहने का साहस करे कि दरवाजे खोलिए, हमें पढ़ना है।
भय, आतंक और स्कूलों की तालाबंदी का माहौल बदलने की शुरुआत हुई तब, जब मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अपनी त्रिवेणी रणनीति "विश्वास, सुरक्षा और विकास' की घोषणा की। बच्चों को स्कूल भेजना वास्तव में व्यवस्था पर विश्वास की आदर्श स्थिति होती है। जब सब कुछ सामान्य होता है तभी अभिभावक अपने लाड़लों को स्कूल भेजते हैं। वे तो ज्यादा ठंडी, गर्मी और बरसात में भी बच्चों को स्कूल नहीं भेजते। नक्सली हिंसा से उपजी परिस्थितियों में स्कूल न भेजने को, या स्कूल ही बंद कर दिए जाने को इस तरह से भी समझा जा सकता है। इसके उलट स्कूल फिर से खुलने का मतलब भी समझा जा सकता है। नक्सल हिंसा से जनजीवन के उबरने या मुक्त होने के बहुत से आयामों और परिणामों में यह महत्वपूर्ण तो है ही। हांडी से निकला भात का यह दाना बताता है कि भरोसे का चावल पकाने की यह प्रक्रिया सफलता से पूरी हुई है। सोच से लेकर सफलता तक के सफर से सिर्फ बच्चों की ही नहीं बल्कि पूरे गांव की खुशहाली भी किलकारियां भर रहीं हैं। नक्सलवादी हिंसा पीड़ित गांवों या अंचल में शांति और खुशियों का लौटना इस तरह सप्रमाण साबित हो तो इसका भरपूर स्वागत होना चाहिए।