मोदी सरकार का नया दांव: ईसाई और इस्लाम में धर्मान्तरित दलितों के लिए आयोग की तैयारी
अखिलेश अखिल
NPG डेस्क। आगामी लोक सभा चुनाव में संभावित विपक्षी एकता को भांपकर मोदी सरकार एक नए वोट बैंक की तलाश में जुट गई है। मोदी सरकार ईसाई और इस्लाम में धर्मांतरित हो चुके दलितों की सामाजिक ,आर्थिक और शैक्षणिक हालत को जानने के लिए एक आयोग बनाने की तैयारी कर रही है। उम्मीद की जा रही है कि इस दिशा में सरकार बहुत जल्द ही फैसला लेगी। ऊपर से देखने में यह एक बेहतर सामाजिक काम लगता है लेकिन माना जा रहा है लेकिन इसमें वोट बैंक की राजनीति भी छुपी है। और यह अपने तरह की एक नयी राजनीति हो सकती है। अगर इस वोटबैंक की राजनीति सध गई तो बीजेपी, विपक्ष की जातीय गणना वाली राजनीति को कमजोर कर देगी। बता दें कि देश में एक बड़ी आबादी धर्मान्तरित दलितों की है। बीजेपी की नजर इन पर पड़ गई है। बीजेपी के इस प्रयास में जाति की राजनीति भी है और धर्म का तड़का भी। जातियों के बरक्स धर्म की राजनीति के तले हिन्दू मुसलमान की सियासत को आगे बढ़ाती बीजेपी को लगने लगा है कि धर्म की राजनीति जिसे कमंडल राजनीति के नाम से भी जानते हैं ,अगर विपक्ष जातीय गणना पर गोलबंद हो गया तो आगामी चुनाव में उसे भारी नुकसान हो सकता है। बीजेपी की सबसे बड़ी परेशानी यही है। बीजेपी इस बात पर मंथन कर रही है कि अगर समय रहते कोई नए वोटबैंक की तैयारी नहीं की गई मंडल की संभावित राजनीति के सामने कमंडल की राजनीति को टिकना मुश्किल हो सकता है। बीजेपी यह भी मान कर चल रही है कि जिस 80 फीसदी हिन्दू के सहारे उसे अबतक सरकार बनाने में सफलता मिलती रही है, उसमे से अगर अगर 70 फीसदी अछूत हिन्दू यानी दलित और पिछड़ी जातियां विपक्ष की गोलबंदी में समा गई तो सरकार बनाना तो दूर पार्टी को ज़िंदा रखना भी खतरे से खाली नहीं है।
राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा ,नीतीश ,ममता ,पवार ,हेमंत ,तेजस्वी ,केसीआर ,स्टालिन ,चौटाला और अखिलेश समेत जयंत की संभावित एकता बीजेपी को परेशान किये हुए है। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का हालिया मास्टर स्ट्रोक जिसमे उन्होंने दलित ,पिछड़ी ,अति पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण बढाकर कुल आरक्षण 77 फीसदी के पार कर दिया है ,बीजेपी की चिंताएं और भी बढ़ा दी है। उसे पता चल गया है कि आने वाला चुनाव अब पहले जैसा नहीं होगा।
ऐसे में चिंता मग्न बीजेपी को एक नई तरकीब सूझी है। बीजेपी के भीतर हुए मंथन में इस बात पर सहमति बनी है कि क्यों न ईसाई या इस्लाम में धर्मांतरण करने वाले अनुसूचित जाति के लोगों या दलितों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति को जाना जाए। कहने के लिए यह सब गैर बराबरी और बराबरी को आंकने की बात दिखती है लेकिन इसके पीछे का सच ये है बड़ी संख्या में धर्मान्तरित लोगों की पहचान करके उसे अपने पाले में लाने का प्रयास है। जानकार मानते है कि बीजेपी का यह खेल ठीक उसी तरह का है जैसे नीतीश कुमार ने दलितों से महादलित और पिछड़ों से अति पिछड़ों की पहचान कर अपनी राजनीति को अंजाम दिया था। अब मोदी सरकार धर्मान्तरित लोगो की आर्थिक ,सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति की जानकारी हासिल करने के लिए एक नेशनल कमीशन का गठन करने की तैयारी में है। यह कमीशन उन अनुसूचित जाति या दलितों की स्टडी करेगा जिन्होंने हिंदू, बौद्ध और सिख के अलावा अन्य धर्मों में धर्मांतरण किया है।
खबर है कि बहुत जल्द ही इस पर अंतिम फैसला हो सकता है। अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय और कार्मिक व प्रशिक्षण विभाग इस पर अपनी सहमति भी दे दी है। अब इस प्रस्ताव पर गृह, कानून, सामाजिक न्याय और अधिकारिता व वित्त मंत्रालयों के बीच विचार-विमर्श चल रहा है। बता दें कि सुप्रीम कोर्ट में ऐसी कई याचिकाएं लंबित हैं जिनमें ईसाई या इस्लाम में धर्मांतरण करने वाले दलितों को आरक्षण का लाभ देने की मांग की गई है। इसे देखते हुए ऐसे मामलों में कमीशन गठित करने का सुझाव और भी अहम हो जाता है।
गौरतलब है कि संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत यह निर्धारित किया गया कि हिंदू, सिख या बौद्ध धर्म से अलग धर्म को मानने वाले किसी भी व्यक्ति को अनुसूचित जाति का सदस्य नहीं माना जा सकता है। हालांकि, केवल हिंदुओं को अनुसूचित जाति बताने वाले इस मूल आदेश में 1956 में सिखों और 1990 में बौद्धों को शामिल करने के लिए संशोधन किया गया था। अब सुप्रीम कोर्ट ने 30 अगस्त को केंद्र सरकार को उन याचिकाओं पर रुख स्पष्ट करने के लिए तीन हफ्ते का समय दिया, जिसमें ईसाई और इस्लाम धर्म अपना चुके दलितों को अनुसूचित जाति आरक्षण का लाभ देने का मुद्दा उठाने वाली याचिकाएं शामिल हैं। सुप्रीम कोर्ट में दायर जनहित याचिका में धर्मांतरण करने वाले दलितों के लिए उसी तरह आरक्षण की मांग की गई है, जैसे हिंदू, बौद्ध और सिख धर्म के अनुसूचित जातियों को आरक्षण मिलता है। आरक्षण देने की मांग पर सुप्रीम कोर्ट में 11 अक्टूबर को सुनवाई होगी। याचिका में कहा गया कि धर्म में परिवर्तन से सामाजिक बहिष्कार नहीं बदलता है। ईसाई धर्म के भीतर भी यह कायम है, भले ही धर्म में इसकी मनाही है। अब देखना ये है कि इस पुरे मामले पर अदालत का क्या रुख होता है और सरकार इसमें कितना सफल हो पाती है। लेकिन सरकार इस खेल को सफल बनाने में कामयाब होती है तो बीजेपी को फिर एक बड़ा वोट बैंक हाथ लग सकता है।
बीजेपी की चिंताएं कई तरह की है। जातीय राजनीति में अपनी पैठ बढाकर बीजेपी ने कई दलों को कमजोर किया और फिर कमंडल की राजनीति चलकर तमाम जातियों को उसमे समेट कर कांग्रेस समेत तमाम क्षेत्रीय दलों को कमजोर भी किया। सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने पिछड़ों को मिल रहे आरक्षण के नाम पर भी राजनीति की और अपना वोट बैंक बनाने के लिए रोहिणी आयोग का गठन किया। जस्टिस रोहिणी आयोग का गठन 2 अक्टूबर, 2017 को संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत किया गया था। इस आयोग को ओबीसी के उप-वर्गीकरण और उनके लिए आरक्षित लाभों के समान रूप से बांटने का काम सौंपा गया था। सबसे पहले इसकी रिपोर्ट जमा करने की समय सीमा 12 हफ्ते थी। यानी 2 जनवरी, 2018 तक। लेकिन तब से इसे 13 बार सेवा विस्तार दिया गया है। हालिया सेवा विस्तार इसी साल 6 जुलाई को दिया गया। रिपोर्ट सौपने की तारीख 31 जनवरी 2023 निर्धारित की गई।
रोहिणी आयोग की रिपोर्ट सामने आ जाती तो संभव था कि आरक्षण के लाभार्थियों का कुछ हिस्सा वह अपने पाले में का पाती। लेकिन जैसे ही जातिगत जनगणना की आवाज तेज होने लगी सरकार के कान खड़े हुए और उसे लगा कि रोहिणी आयोग की रिपोर्ट सामने आ गई तो उसे लाभ की बजाय हानि भी हो सकती है। पार्टी को डर है कि आयोग की रिपोर्ट से उसे राजनीतिक नुकसान हो सकता है। ओबीसी वोटबैंक का समर्थन बरकरार रखने की उसकी कोशिशें बेकार हो सकती हैं। बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि सरकार ने 2017 में अचानक ही आयोग की घोषणा की थी। ऐसा इसलिए क्योंकि पार्टी ने खुद देखा कि आरक्षण का लाभ चुनिंदा मामलों में लोगों को मिल रहा है। अब बीजेपी को ठोस ओबीसी समर्थन हासिल है। ऐसे में उन्हें उप-वर्गीकृत करना अच्छा नहीं होगा। मुझे नहीं लगता कि ये रिपोर्ट कभी तैयार हो पाएगी।
रोहिणी आयोग की रिपोर्ट आएगी या नहीं कहना मुश्किल है लेकिन जिस तरह से बिहार में जातीय गणना की शुरुआत होने जा रही है वह बीजेपी के लिए बड़े सिरदर्द के सामान है। बीजेपी के नेता भी जातीय जनगणना चाहते हैं लेकिन केंद्र सरकार ऐसा नहीं चाहती। मोदी सरकार को पता है कि अगर जातीय जनगणना में पिछड़ी जातियों की संख्या अगर बढ़ गई तो खेल कुछ और ही हो जाएगा। अभी पिछड़ी जातियों को 27 फीसदी आरक्षण है और जैसे ही उसकी आबादी बढ़ेगी आरक्षण बढ़ाने की मांग तेज होगी। और यह मांग मोदी सरकार के लिए परेशानी वाला होगा। देश फिर से एक नए बहस की तरफ चला जाएगा और फिर कमंडल की राजनीति भी कुंद हो जाएगी। बीजेपी को डर है कि आबादी बढ़ोतरी के अनुसार आरक्षण का दर नहीं बढ़ेगा तो बीजेपी के ओबीसी वोटबैंक भी उसे छोड़कर आगे निकल सकते हैं और ऐसा हुआ तो बीजेपी कई राज्यों में हाशिये पर जा सकती है।
लेकिन बीजेपी करे भी क्या ? अब तो बिहार में जातीय जनगणना की शुरुआत होने को है। उत्तरा भारत के कई राज्य भी बिहार की तर्ज पर जातीय जनगणना कराने की मांग कर रहे हैं। तमाम क्षेत्रीय दल जो जाति की राजनीति करते हैं वे अब बिहार के साथ खड़े हैं। मोदी सरकार की सबसे बड़ी परेशानी अभी यही दिख रही है।
बता दें कि देश में आजादी से पहले 1931 तक जातिगत जनगणना होती थी। 1941 में जनगणना के समय जाति आधारित डेटा जुटाया ज़रूर गया था, लेकिन प्रकाशित नहीं किया गया। आजादी के बाद 1951 से 2011 तक की जनगणना में हर बार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का डेटा दिया गया, लेकिन ओबीसी और दूसरी जातियों का नहीं। ओबीसी आबादी कितने प्रतिशत है, फ़िलहाल इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं है।
हालांकि साल 1990 में केंद्र की तत्कालीन विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग, जिसे आमतौर पर मंडल आयोग के रूप में जाना जाता है, उसकी एक सिफ़ारिश को लागू किया। ये सिफ़ारिश अन्य पिछड़ा वर्ग के उम्मीदवारों को सरकारी नौकरियों में सभी स्तर पर 27 प्रतिशत आरक्षण देने की थी। इस फ़ैसले ने देश, ख़ासकर उत्तर भारत की राजनीति को बदल कर रख दिया। मंडल कमीशन के आँकड़ों के आधार पर कहा जाता है कि भारत में ओबीसी आबादी 52 प्रतिशत है। हालाँकि मंडल कमीशन ने साल 1931 की जनगणना को ही आधार माना था। लेकिन इस कमीशन ने जाति जनगणना कराकर सही आँकड़े हासिल करने की सिफ़ारिश भी की थी।
ये बात और है कि 2011 में सोशियो इकोनॉमिक कास्ट सेंसस आधारित डेटा जुटाया गया था। चार हजार करोड़ से ज़्यादा रुपए ख़र्च किए गए और ग्रामीण विकास मंत्रालय और शहरी विकास मंत्रालय को इसकी ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी। वर्ष 2016 में जाति को छोड़ कर सोशियो इकोनॉमिक कास्ट सेंसस आधारित सभी आँकड़े प्रकाशित हुए, लेकिन जातिगत आँकड़े प्रकाशित नहीं हुए। जाति का डेटा सामाजिक कल्याण मंत्रालय को सौंप दिया गया, जिसके बाद एक एक्सपर्ट ग्रुप बना, लेकिन उसके बाद आँकड़ों का क्या हुआ, इसकी जानकारी सार्वजनिक नहीं की गई है।
और अब जब नीतीश कुमार बीजेपी से अलग होकर राजद और कांग्रेस ,वाम दलों के साथ बिहार की सरकार बनाकर बीजेपी को उखाड़ फेंकने के लिए विपक्षी एकता के लिए नई राजनीति की शुरुआत कर रहे हैं तो बीजेपी की धड़कने बढ़ने लगी है। देश में धर्म का धंधा चाहे जितना बड़ा हो लेकिन इस देश का सच ये है कि कोई अपनी जातीय पहचान को खोना नहीं चाहता। ऐसे में कई मुद्दों पर विभाजित विपक्ष के लिए जातीय जनगणना ऐसा मुद्दा है, जिसे लेकर वो सरकार पर आक्रामक कर सकते है। पिछड़ों और दलितों को कैबिनेट में प्रतिनिधित्व देने को लेकर ख़ूब प्रचार प्रसार करने वाली बीजेपी जातीय जनगणना कराने से हिचक रही है।जानकार मानते हैं कि हिंदुत्व की राजनीति करने वाली बीजेपी नहीं चाहती कि जाति का मुद्दा ऐसा बन जाए कि उसे किसी तरह का नुक़सान हो या उसके राजनीतिक समीकरण बिगड़ें। लेकिन क्षेत्रीय दलों को इसमें अपना हित दिख रहा है। अब देखना ये होगा कि सरकार इस मुद्दे को कैसे डील करती है। हालांकि यह दिलचस्प है कि धर्म की राजनीति करने वाले ही सबसे ज़्यादा जातिगत जनगणना से डरते और विरोध करते हैं।
इस पुरे जातीय खेल में बीजेपी के पास बहुत कुछ बचा नहीं है। धर्म की राजनीति से अब अगड़े भी बिदकने लगे हैं। बनिया समाज को आज भी धरम पर गर्व है लेकिन उनकी आबादी ऐसी नहीं है जो बीजेपी को संचालित कर सके। ऐसे में बीजेपी जो धर्मान्तरित दलितों का हाल जानने के लिए कोशिश कर रही है उसमे कुछ नए वोट बैंक की आस जग रही है। अब देखना है कि अदालत इस मसले पर क्या कुछ फैसला देता है। लेकिन अगर सरकार के फेवर में सबकुछ रहा तो तो निश्चित रूप से बीजेपी को एक नया वोटबैंक मिलेगा।