गुरुपद संभव रामजी ने कहा...अच्छी संगत से मनुष्य महान इंसान बन जाता है, सिर्फ खुद के लिए न सोचें बल्कि अपने परिवार, समाज और संस्कृति के बारे में भी सोचें
गुरुपद संभव राम जी ने कहा कि व्यक्ति के जीवन में संगत का बड़ी भूमिका होती है। अच्छी संगत में आदमी महान इंसान बन जाता है। उन्होंने कहा कि सिर्फ अपने लिए न सोंचे बल्कि सोच को वृहद करें... अपने परिवार के लिए भी सोंचे।
वाराणसी, 13 जनवरी 2022। माँ गंगा के पावन तट पर स्थित अघोरेश्वर भगवान राम घाट, अघोरेश्वर महाविभूति स्थल के पुनीत प्रांगण में परमपूज्य अघोरेश्वर भगवान राम जी की जननी "माँ महा मैत्रायणी योगिनी जी" का 30वाँ निर्वाण दिवस बड़ी ही श्रद्धा एवं भक्तिमय वातावरण में मनाया गया। मनाने के क्रम में प्रातः आश्रम परिसर की साफ-सफाई की गई। इस अवसर पर अपना आर्शीवचन देते हुए गुरुपद संभव राम जी ने कहा कि व्यक्ति के जीवन में संगत का बड़ी भूमिका होती है। अच्छी संगत में आदमी महान इंसान बन जाता है। उन्होंने कहा कि सिर्फ अपने लिए न सोंचे बल्कि सोच को वृहद करें... अपने परिवार के लिए भी सोंचे।
लगभग 8ः30 बजे से पूज्यपाद बाबा गुरुपद संभव राम जी ने परमपूज्य अघोरेश्वर महाप्रभु एवं माताजी की समाधि पर माल्यार्पण, पूजन एवं आरती किया। इसके बाद श्री पृथ्वीपाल जी ने सफलयोनि का पाठ किया। तत्पश्चात् पूज्य बाबा जी ने हवन-पूजन किया। मध्याह्न 12ः30 बजे से एक पारिवारिक विचार गोष्ठी आयोजित की गयी जिसमें वक्ताओं ने माँ महा मैत्रायणी योगिनी जी को याद करते हुए उनसे प्रेरणा लेने की बात कही। वक्ताओं में संस्था के उपाध्यक्ष डॉ० ब्रजभूषण सिंह जी, सीआरपीएफ में असिस्टेंट कमान्डेंट श्री आलोक सिंह जी, श्रीमती ममता जी, श्रीमती मीना जी एवं कुमारी दामिनी थीं। श्रीमती गिरिजा तिवारी जी ने भजन प्रस्तुत किया। गोष्ठी का संचालन श्री मानवेन्द्र प्रताप ने किया तथा धन्यवाद ज्ञापन संस्था के व्यवस्थापक श्री हरिहर यादव ने किया।
अपने आशीर्वचन में संस्था के अध्यक्ष पूज्यपाद बाबा औघड़ गुरुपद संभव राम जी ने कहा कि हमलोग बहुत ही आसानी से अच्छी-अच्छी बातें तो करते और सुनते रहते हैं, लेकिन उन पर चलना उतना ही कठिन मालूम होता है। बुरी संगत के चलते ही हम फिर दुष्कृत्यों में लिप्त हो जाते हैं। कई लोग यहाँ आकर सुधर गए, लेकिन ऐसे भी लोग हैं जिनमें कोई सुधार नहीं हुआ। गलत संगत के दुष्प्रभाव में आकर अपने मूल स्वभाव से विरत हो जाने के चलते ही ऐसा होता है। कोई व्यक्ति दूर रहकर भी यदि महापुरुषों की वाणियों का अनुसरण किया है तो उसके व्यवहार से वह परिलक्षित होता है। उसके द्वारा अपने से बड़े-बुजुर्गो का सम्मान होता है। यदि हम स्थिर हैं तो कहीं भी जाने पर वहाँ की प्रकृति, अच्छी तरंगें हमें सबकुछ बताने लगती हैं कि यहाँ पर कैसे लोग हैं, उनके कृत्य क्या हैं। इसी तरह मनुष्य भी अच्छी संगत करके एक महान इन्सान बन जाता है और बुरी संगत में पड़कर वह अपने-आप को विनष्ट भी कर लेता है। मनुष्य सोचता है कि हम दूसरे को धोखा दे रहे हैं, ठग रहे हैं, लेकिन वह अपने-आप को ही धोखे में रखता है। हमारे कर्मों को देखकर ही बच्चों को प्रेरणा मिलती है। हम अगर अच्छे से रहेंगे, अपने बच्चों को अच्छी प्रेरणा देंगे, तो हम अपने भारतवर्ष के लिए भी अच्छा करेंगे। केवल अपने लिए ही न सोचें, अपितु अपने बड़े-छोटे परिवार के लिए भी सोचें। अपनी सोच को वृहद् करें, तभी हम अपनी संस्कृति को बचा पायेंगे। माताजी भी अपने संपर्क में आने वाली माताओं को यही शिक्षा देती थीं की आप अपने संस्कार और संस्कृति को बचाए रखें। आज के युग के हिसाब से आप आगे अवश्य बढिए, लेकिन उस आधुनिकता में लिप्त होकर अपने संस्कार और संस्कृति की तिलांजलि मत दे दीजिये। नई-नई चीजों को जानिए, अविष्कार कीजिये, नए-नए विचारों को दीजिये, जिससे हम, हमारा परिवार और हमारा देश आगे बढे। लेकिन यदि अपने संस्कार और संस्कृति को छोड़कर ऐसा करेंगे तो कहीं के नहीं रह पायेंगे। हम बार-बार महापुरुषों की वाणियों का अवलंबन लें, अपने आत्मबल को मजबूत करें, अपने को इतना सुदृढ़ कर लें कि हम गलत लोगों की तरंगों के प्रभाव में न आ पायें। शील, संयम और सतर्कता रखें। डरने वाली या मन-मस्तिष्क को तनाव में रखने वाली सतर्कता नहीं, बल्कि हमें सजग रहने की जरूरत है। पूर्व में हुई गलतियों को पुनः न दोहराने का सकल्प ले लेने से हमारे अपराधों को वह ईश्वर माफ कर देता है। ईश्वर तो अपार दयालु है, वह क्षमा, प्रेम, ममता और करुणा की मूर्ति हैं। हम अपने आप को गर्त में न डालें, ऐसे कृत्यों को न करें जो हमारे लिए तो विनाशकारी है ही, वह परिवार, मित्र, समाज, देश और आने वाली पीढ़ी के लिए भी नुकसानदेय हो। हम गृहस्थ आश्रम में रहते हुए भी कैसे उन महापुरुषों के तद्रूप हों, इस पर अवश्य विचार करें। आज मानव समाज का विश्वव्यापी पतन हो रहा है, जिससे कि प्रकृति भी कुपित हो जा रही है। आज मनुष्य ने इतने विनाशकारी चीजों को एकत्रित कर लिया है कि यह कहीं कोई महाविनाश न करवा दे। कहा गया है कि "धर धरती का एक ही लेखा, जस बाहर तस भीतर देखा", तो वैसे ही प्रकृति भी कुपित हो जा रही है। जो मनुष्य अच्छे कार्यों को करता है वह मृत्यु से भयभीत नहीं होता। हम ऐसा रहें, ऐसा करें की वह कलयुग हमारे लिए न हो।
उल्लेखनीय है कि कोविड के पुनः बढ़ते संक्रमण के चलते यह कार्यक्रम बड़ी ही सादगी से और सतर्कता से संस्था के पदाधिकारियों और आश्रम में निवास करने वाले श्रद्धालुओं द्वारा ही मनाया गया। संस्था के सदस्यों/शिष्यों को संस्था द्वारा पहले ही सूचित कर दिया गया था कि वे लोग अपने-अपने स्थान से ही इस पर्व पर अपनी श्रद्धा-सुमन अर्पित करें।